नवदुर्गा महोत्सव और मोबाइल

01-10-2025

नवदुर्गा महोत्सव और मोबाइल

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

नवदुर्गा की धूम है। चारों ओर भक्ति का माहौल, पंडालों की सजावट और माता रानी के जयकारे . . . यह सब तो सदियों से होता आ रहा है। लेकिन इस बार का नवरात्रि महोत्सव कुछ अलग है। इस बार की देवी माँ के दर्शन, असल दर्शन से ज़्यादा वर्चुअल दर्शन पर निर्भर हैं। 

सुबह उठते ही सबसे पहले लोग माता रानी के दर्शन नहीं करते, बल्कि अपनी सेल्फ़ी की ‘लाइव’ स्ट्रीमिंग शुरू करते हैं। अगर कोई ग़लती से बिना मेकअप या डिज़ाइनर कपड़ों के पंडाल चला जाए, तो उसे ऐसा महसूस होता है, जैसे वह किसी फ़ैशन शो में ग़लती से आ गया हो। कपड़ों पर बात करना ज़रूरी है। इस बार का गरबा लुक ऐसा है कि ‘डांडिया’ तो बस एक प्रॉप (Prop) बनकर रह गया है, जो हाथ में हो तो ‘रील’ अच्छी बनती है। लोग गरबे के स्टेप्स सीखने से ज़्यादा अपने कपड़ों की ब्रांडिंग और फ़ैशन सेंस दिखाने में व्यस्त हैं। 

सोशल मीडिया पर आज का गरबा लुक, पहले गरबा दिल से खेला जाता था, अब तो बस ‘लाइव’ होने के लिए खेला जाता है। एक हाथ में डांडिया और दूसरे में मोबाइल। गरबा खेलने वाले आधे-अधूरे मन से नाचते हैं, क्योंकि उनका ध्यान बार-बार ‘स्टोरी’ बनाने और ‘फ़ॉलोअर्स’ बढ़ाने पर चला जाता है। आ जकल का नया नियम है, जब तक ‘लाइव’ शुरू नहीं होता, तब तक आरती शुरू नहीं होती। और जब ‘लाइव’ ख़त्म होता है, तभी आरती का समापन होता है। सबसे बड़ा व्यंग्य तो तब लगता है, जब आरती में सब लोग आँखें बंद करने की बजाय अपने-अपने फोन में ‘कैप्शन’ लिखने में व्यस्त होते हैं: “माँ के चरणों में, सब कष्ट दूर हुए।”

और ‘किस पंडाल में कौन सा सेलिब्रिटी आ रहा है’ जैसी पोस्ट्स की बाढ़ आ जाती है। असली देवी माँ तो पंडाल में शांत बैठी हैं, पर हमारे मोबाइल की देवी माँ हर पल अपडेट होती रहती हैं। 

युवा पीढ़ी पंडाल में आती है, पर उनकी नज़रें माँ की प्रतिमा पर कम और सेल्फ़ी कैमरा पर ज़्यादा होती हैं। पंडालों में लगी माता रानी की भव्य प्रतिमाएँ तो बस एक सुंदर ‘बैकड्रॉप’ हैं, ताकि लोग उनके आगे खड़े होकर अपनी स्टाइलिश तस्वीरें खींच सकें। इन तस्वीरों के कैप्शन भी ख़ास होते हैं, “माँ के दर्शन से मन शांत हुआ” जबकि मन में यही चल रहा होता है कि अगली रील में कौन-सा गाना डालें। 

ऐसा लगता है कि हमारी देवी माँ भी अब डिजिटल युग में आ गई हैं। वे अब सिर्फ़ पंडालों में नहीं, बल्कि हमारे मोबाइल फोन की गैलरी में भी निवास करती हैं। और शायद अगली बार वह भी हमें ‘ऑनलाइन’ ही दर्शन दें, और हम सब उनसे कहेंगे, “माता रानी, थोड़ा इंतज़ार करो, हमारी ‘बैटरी’ ख़त्म हो गई है।” ग्रुप फोटो, स्नैपचैट फ़िल्टर और इंस्टाग्राम रील्स का ऐसा ताँता लगा रहता है कि लगता है यह नवदुर्गा उत्सव नहीं, बल्कि एक बड़ा डिजिटल मार्केटिंग इवेंट है।

सबसे तीखा व्यंग्य तो तब महसूस होता है, जब हम देखते हैं कि पंडाल में बैठी माँ के सामने हज़ारों लोग कैमरे ऑन करके खड़े हैं, पर उनकी नज़रें भक्ति में झुकी नहीं, बल्कि स्क्रीन पर टिकी हैं। वे माँ की आरती में शामिल होने से ज़्यादा, आरती की लाइव रिकॉर्डिंग में व्यस्त हैं। जब तक लाइव शुरू नहीं होता, तब तक आरती शुरू नहीं होती। और जब लाइव ख़त्म होता है, तब ही आरती का समापन होता है। 

यह सब देखकर लगता है कि कहीं हम भक्ति और दिखावे के बीच का अंतर भूल तो नहीं गए? कहीं हमारी देवी माँ भी हमारे ‘फॉलोअर्स’ बढ़ाने का एक ज़रिया तो नहीं बन गईं? 

कहीं हमारी देवी माँ भी हमारे मोबाइल की क़ैद में तो नहीं आ गईं? इस बात पर चिंतन करना ज़रूरी है। क्योंकि, अगर हम देवी माँ को मोबाइल के ज़रिए ही देखेंगे, तो हो सकता है अगली बार वह भी हमें ऑनलाइन ही दर्शन दें। 

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