द्रौपदी वस्त्र हरण एवं भीम की प्रतिज्ञा
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
(काव्य नाटिका)
पात्र: धृतराष्ट्र, द्रौपदी, धर्मराज्य, भीम, विदुर, दुर्योधन, शकुनि
काव्यानुवाद: सुशील शर्मा
प्रथम दृश्य
(शकुनि दुर्योधन को समझाता है कि पांडवो पर युद्ध में विजय पाना असंभव है अतः उन्हें अन्य विधि द्वारा ही जीता जा सकता है)
शकुनि:
मत दुर्योधन तुम रखो
ईर्षा का अधिमान।
भाग्य प्रबल पांडव जियें
हर न सके तुम प्राण।
लाख प्रयत्न तुमने किये
कितने चले कुचक्र।
पर पांडव संतान का
बाल हुआ न वक्र।
द्रुपद, द्रौपदी का मिला
उनको संग अनन्य।
कृष्ण सहायक रूप में
उनका प्राप्त प्रपन्न।
अग्निदेव की कृपा से
अर्जुन के दिव्यास्त्र।
अक्षय तरकश सब मिले
मिले ब्रह्ममय शस्त्र।
किन्तु तुम्हारे पास भी
सौ भ्राता हैं वीर।
कर्ण, द्रोण, श्री पितामह
जीतें काल प्रवीर।
कृपाचार्य, गुरुपुत्र हैं
अति बाकेँ रणवीर।
भूरिश्रवा, जयद्रथ सभी
जीतें धरा सुधीर।
दुर्योधन:
अनुमति यदि मुझको मिले
करके युद्ध कराल।
इन सब वीरों को हनु
विजय लिखूँ निज भाल।
पांडव पुत्रों को हनु
करके युद्ध विराट।
सारी धरती का बनूँ
एकमेव सम्राट।
शकुनि:
अस्त्र-शस्त्र में निपुण सब
महारथी दुर्जेय।
श्रीकृष्ण के संग में
वे सब अगम अजेय।
अगर चाहते पुत्र तुम
पांडव दल की हार।
बस उपाय अब एक है
द्यूत करो व्यवहार।
धर्मराज को अति प्रिय लगता
द्यूत खेल ये न्यारा प्रिय।
देकर आज निमंत्रण उसको
जीतो राज्य तुम्हारा प्रिय।
मामा तेरा जादूगर है
सबसे बड़ा खिलाड़ी है।
धर्मराज है शून्य जुआ में
बिलकुल निपट अनाड़ी है।
फेंकूँगा में पाँसा ऐसे
राज्य, लक्ष्मी सब जीतूँ।
नहीं कोई संशय है मन में
राज्य, धर्म सब मैं खींचूँ।
अतः अभी प्रिय जीजाजी को
जाकर शीघ्र मनाओ तुम।
बिना युद्ध के बिन मेहनत के
अपने राज को पाओ तुम।
दुर्योधन:
अरे वाह मामाजी तुमने
मेरे हृदय की बात कही।
अभी पिता जी से मैं जाकर
करता हूँ यह बात सही।
द्वितीय दृश्य
(दुर्योधन और शकुनि धृतराष्ट्र के पास जाकर उससे कहतें हैं कि युधिष्ठिर की प्रतिष्ठा और धन ऐश्वर्य देख कर उसके मन में जलन, ईर्षा हो रही है और धीरे वह बीमार हो रहा। शकुनि उनसे कहता है की उसके पास युधिष्ठिर से ये सारी वस्तुएँ प्राप्त करने की कला है।)
शकुनि:
दुर्योधन का मुखड़ा पीला
कान्ति देह की दुर्बल है।
चिंता में हरपल रहता है
अंतस से वह निर्बल है।
जबसे राजसूय से लौटा
देख युधिष्ठिर का सम्मान।
मन ही मन दुर्योधन कुंठित
अंतस में फैला अपमान।
कुछ तो करिये जीजा श्री अब
वह प्यारा पुत्र तुम्हारा है।
कुरुवंशी का राजदुलारा
आपकी आँख का तारा है।
धृतराष्ट्र:
कुरुनन्दन क्या कष्ट तुम्हें है
खुल कर मुझे बताओ तुम।
कौन सी चिंता हृदय बसी है
मुझको अभी सुनाओ तुम।
मेरे हृदय की रौनक़ हो तुम
तुम तो नयन हमारे हो।
सारे भ्राता आज्ञाकारी
फिर चिंता क्यों धारे हो।
देव दिव्य सब वस्तु भोगो
भव्य महल में रहते हो।
स्वर्ग सुलभ सुख के तुम स्वामी
मन चिंता क्यों सहते हो।
दुर्योधन:
अच्छा खाता और पहनता
कायर पर मैं मन से हूँ।
हृदय ईर्षा आग भरी है
भले सबल मैं तन से हूँ।
मन में अति संतोष रखे वह
कभी न ऊँचा उठ पाए।
भय संग दया हो जिसके मन में
कभी न वह लक्ष्मी पाए।
देख युधिष्ठिर का वह यश
भोजन नहीं सुहाता है।
कान्ति क्षीण तन मेरी होती
मन दुःख से भर जाता है।
दस सहस्त्र द्विज भोजन करते
नित्य स्वर्ण की थाली में।
क्षेत्रपाल दिग्पाल सभी हैं
नियत वहाँ रखवाली में।
कदलीमृग के चर्म, रत्न सब
पांडव महलों में सजते हैं।
लक्ष्मी धन ऐश्वर्य सिद्धियाँ
द्वार युधिष्ठिर के जगते हैं।
देख कर उत्कृष्ट यश यह
हृदय मेरा जल रहा है।
पाण्डुपुत्रों का सुयश मेरे
हृदय को अति खल रहा है।
पाण्डवपुत्रों के जैसा यश
यदि मुझे नहीं मिलता है।
जीवन सारा व्यर्थ हे मेरा
मन में बस आकुलता है।
या तो मैं उनसे रण जीतूँ
लक्ष्मी अपने नाम करूँ।
समरभूमि में उनसे लड़कर
अपनी मृत्यु स्वयं वरूँ।
शकुनि:
क्यों चिंतित हो तुम भगनी सुत
मुझसे एक उपाय सुनो।
सारी लक्ष्मी तेरी होगी
मेरे मन की बात गुनो।
भूमंडल में द्यूत क्रिया का
निपुण खेलने वाला हूँ।
दाँव लगा कर पाँसा फेंकूँ
विजय झेलने वाला हूँ।
छल-बल से में निश्चय जीतूँ
द्यूत क्रिया में उन्हें हराऊँ।
सब ऐश्वर्य लक्ष्मी छीनूँ
दुर्योधन सर मुकुट सजाऊँ।
उन्हें बुला लो किसी बहाने
द्यूत खेलने राज़ी कर लो।
उन्हें हरा कर द्युत क्रिया में
अपने हाथ में बाज़ी कर लो।
दुर्योधन:
(धृतराष्ट्र से)
पांडव सम्पत्ति हरे
मामाश्री का द्यूत।
पाँसों से लक्ष्मी हरें
यश हो भस्मीभूत।
अतः आज्ञा दीजिये
यदि सुत सुख की चाह।
मेरा सुख यदि चाहते
एक यही बस राह।
धृतराष्ट्र:
विदुर सचिव हैं राज्य के
ज्ञान नीति आधार।
उनके मत से ही चले
राज कार्य का भार।
विदुर नीति धर्मात्मा
विदुर धर्म पर्याय।
उभय पक्ष का हित सधे
यही विदुर का न्याय।
दुर्योधन:
विदुर हमेशा साधते
पांडव हित का पक्ष।
ज्ञान नीति उनकी रहे
मेरे सदा विपक्ष।
नहीं एक जैसी रहे
दो पुरुषों की राय
आप स्वयं निर्णय करें
करें यथोचित न्याय।
अपने हित को साधना
है पुरुषार्थ विवेक।
हाथ का अवसर चूकना
नहीं कार्य है नेक।
धृतराष्ट्र:
दुर्योधन तुम तनिक विचारो
क्यों विरोध को न्योता देते।
कुल में ही क्यों कलह मचाते
बलवानों से पंगा लेते।
द्यूत हमेशा बुद्धि हरता
नहीं ठीक यह सुत मानो।
कुल में कलह कराएगा यह
सत्य बात यह तुम जानो।
दुर्योधन:
राज सभा में द्यूत क्रिया का
है लम्बा इतिहास पिताजी।
युद्ध नहीं बस मात्र खेल यह
वही श्रेष्ठ जो जीते बाज़ी।
अतः आप मामा शकुनि की
एक बात यह मान लीजिये।
पांडव पक्ष को देकर न्योता
उनको यह सम्मान दीजिये।
धृतराष्ट्र:
नहीं बात बेटा यह अच्छी
बाद में तू पछतायेगा
नहीं धर्म अनुकूल द्यूत यह
नष्ट हमें कर जायेगा।
विदुर जानते थे सब पहले
क्षत्रिय कुल पर संकट भारी।
मैं हूँ विवश अभागा देखो
करो जो मन में है तैयारी।
वैशम्पायन:
मोह चित्त पर छा गया
किया न तनिक विचार।
तोरण स्फाटिक सभा
बन कर थी तैयार।
ज्यों ही विदुर ने था सुना
द्यूत खेल संदेश।
गए भागते महल में
मन में था आवेश।
विदुर:
(धृतराष्ट से)
भ्राता श्री ये अशुभ है
तनिक तो करो विचार।
द्यूत खेल से भ्रष्ट हों
चित बुद्धि आचार।
कलह क्लेश हो द्यूत से
मिटे प्रेम समभाव।
पांडव कौरव पक्ष में
ख़ूब बढ़े दुर्भाव।
धृतराष्ट्र:
अच्छा यह अवसर मिला
सब भ्राता हैं साथ।
नहीं बढ़ेगी शत्रुता
जब मिलें प्रेम से हाथ।
दुर्योधन भी कह रहा
पांडव उसके भ्रात।
वह शत्रु उनका नहीं
करे प्रेम की बात।
अतः विदुर भेजो अभी
खांडव को संदेश।
पांडव सब आएँ यहाँ
यह भी उनका देश।
द्यूत निमंत्रण दो उन्हें
भिजवाओ सन्देश।
बड़े पिता से वो मिलें
पाकर प्रेम निवेश।
वैशम्पायन:
विदुर जानते थे सभी
दुर्योधन की चाल।
कुरु राजा की बात को
पर न सके वो टाल।
दृश्य तीन
(विदुर जी धृतराके बलपूवक भेजने पर वेगशाली, रथपर सवार हो युधिष्ठिर के पास पहुँचे, युधिष्ठिर ने राज्य अतिथि की तरह उनका अभिनंदन किया)
युधिष्ठिर:
काकाश्री का आगमन
नयन नेह अविराम।
अभिनंदन है आपका
करूँ मैं दंड प्रणाम।
बड़े पिताश्री पुत्रों के संग
कुशल स्वस्थ आनंदित होंगें।
राज्य, प्रजा परिवार सहित सब
ख़ुशियों से परिपूरित होंगें।
विदुर:
बड़े भ्रात धृत पुत्रों के संग
आनंद से नित रहते हैं।
राज्य प्रजा सारे संबंधी
सानंद सुख में बहते हैं।
कुशल क्षेम के बाद उन्होंने
तुमको यह संदेश दिया है।
द्यूत खेल के लिए उन्होंने
आज निमंत्रित तुम्हें किया है।
इष्टमित्र सब भाई मिलकर
उत्सव सभी मनाएँगे।
द्यूत खेल सब मिल कर खेलें
मन के द्वेष मिटायेंगे।
युधिष्ठिर:
नहीं उचित यह द्यूत खेल है
कर्म बड़ा दुखदायी है।
आप धर्म के धीर धुरंधर
हम सब तो अनुयायी हैं।
आप उचित क्या इसको समझें
नीति धर्म की बाते कहें।
जैसा आप कहेंगे हमसे
उस पथ पर हम अडिग रहें।
विदुर:
द्यूत अनर्थ की जड़ है प्रियवर
मैंने यह समझाया था।
प्रयत्न किये थे द्यूत रोकने
सफल नहीं हो पाया था।
उचित लगे जो वही करो तुम
धर्म की ध्वजा पताका तुम
धर्म नीति के तुम हो पंडित
कौरव वंश शलाका तुम।
युधिष्ठिर:
कौन-कौन होंगे प्रतिद्वंद्वी
जो दुर्योधन संग हैं।
आर्य विदुर तुम मुझे बताओ
जो द्यूत खेल के अंग हैं।
विदुर:
शकुनि निपुण द्यूत में बैठा
इच्छा से पाँसे चलता।
चित्रसेन पुरुमित्र कर्ण से
दुर्योधन को बल मिलता।
युधिष्ठिर:
बड़ा कुटिल जाल ये फेंका
द्यूत सभा के खेल में।
देखें अब क्या सभा में होता
इस कुरुवंशी मेल में।
तनिक नहीं है मन में इच्छा
द्यूत खेल का मैं खेलूँ।
शकुनि के संग पाँसे फेंकूँ
दुर्योधन को मैं झेलूँ।
यदि पिता की है ये आज्ञा
द्यूत सभा में जाऊँगा।
नहीं हटूँगा नीति नियम से
अपना धर्म निबाहूँगा।
दृश्य चार
(विदुर से निमंत्रण पाने के उपरांत धर्म राज युधिष्ठिर ने तुरंत ही यात्रा की सारी तैयारी करने के आदेश दिए। सुबह सभी बंधु बांधवों एवं परिवार के साथ हस्तिनापुर पहुँच गए, सभी से यथा योग्य मिलन के उपरांत दूसरे दिन सभी द्यूत सभा में उपस्थित हुए।)
शकुनि:
द्यूत क्रिया का वस्त्र बिछाया
अहो युधिष्ठर तुम आओ।
आज चलो हम पाँसे फेंकें
जो चाहो तुम पा जाओ।
युधिष्ठिर:
नहीं सभ्य जन इसको खेलें
द्यूत पाप का कारण है
क्षत्रियों का यह धर्म नहीं है
धर्म नीति का मारण है।
नहीं पराक्रम इसमें लगता
ना ही कोई नीति है।
मुझे आज बतलाओ मामा
द्यूत से क्यों ये प्रीति है।
शकुनि:
जो बुद्धि से पाँसे पढ़ कर
चाल द्यूत की चलता है।
जय का वरण वही करता है
उसको धन-बल मिलता है।
दोनों तरफ़ पराजय-जय है
भाग्य का जो बलकारी है।
जिसके पाँसे भाग्य फेंकता
वही जीत अधिकारी है।
संशय को अब त्यागो भाँजे
आओ पाँसे आज भरो।
यदि भय से काँप रहे तुम
द्यूत खेल का त्याग करो।
तुम यदि द्यूत सभा से भागे
तो कायर कहलाओगे।
धर्म ध्वजा की गिरे पताका
कैसे मुँह दिखलाओगे।
(शकुनि के उकसाने पर युधिष्ठिर को क्रोध आ गया उन्होंने सभा में स्वीकार किया कि वो यह जुए का खेल खेलेगें, दुर्योधन ने कहा धन, रत्न मैं दूँगा किन्तु मेरी और से मामा शकुनि पाँसे फेंकेंगे)
मणि रत्नों में था सर्वोत्तम
धर्म ने दाँव लगाया था।
शकुनि ने जब पाँसे फेंके
धर्म ने हार गँवाया था।
स्वर्ण राज्य सब दास गँवाए
सब सेना भी हारी थी।
हाथी घोड़े रत्न गँवाए
शकुनि चाल कुठारी थी।
विदुर:
द्यूत सभा में सारे बैठे
ज्ञानवान विद्वान सुनो।
अन्यायों की इस बेला में
क्यों न धर्म का मान चुनो।
बंद करो ये खेल द्यूत का
कपट से ये सब जीते हो।
ऊपर से सब धर्म की बातें
अंतस में सब रीते हो।
आप पितामह क्यों चुप बैठे
अन्यायों पर मौन रहे।
धर्म निष्ठ गुरु द्रोण भी चुप क्यों
धर्म की भाषा कौन कहे।
दुर्योधन:
विदुर सदा से तुम करो
मेरा परम विरोध।
सदा शत्रु के साथ हो
करते तुम अवरोध।
यहाँ सभी हैं जानते
तुम किसके हो पक्ष।
राग द्वेष हमसे रखो
रहते सदा विपक्ष।
स्वामीद्रोह रखते सदा
तुम गोदी के साँप।
तुम बिलाव उद्दंड हो
मन में भरे हो पाप।
मत बाधक काका बनो
करो न हमसे बैर।
विघ्न डालते हो यदि
नहीं तुम्हारी ख़ैर।
(विदुर खिन्न मन से उठ कर वहाँ से चले जाते हैं)
शकुनि:
रत्न अर्थ धन पृथ्वी हारे
शेष बचा हो यदि कोई धन।
चलो लगा दो आज दाँव पर
द्यूत खेल में कुन्तीनन्दन।
वैशम्पायन:
अर्जुन भीम नकुल सब हारे
स्वयं और सहदेव हरे।
शकुनि मन ही मन मुस्काया
पाँसों में था कपट भरे।
हार गए सब दाँव जुए में,
नहीं और कुछ शेष बचा।
शकुनि की चालों ने देखो,
नाटक बड़ा विशेष रचा।
दुर्योधन:
और लगाओ दाँव युधिष्ठिर,
अभी द्रौपदी बाक़ी है।
दुर्योधन की उन आँखों में,
कटु क्रूरता झाँकी है।
दृश्य पाँच
(पांडव द्रौपदी सहित स्वयं को हारने पर दास की भाँति सभा में खड़े हैं। दुःशासन द्रौपदी के केश पकड़ कर खींचता हुआ लाता है।)
वैशम्पायन:
व्यग्र बहुत थे पांडव मन में,
लेकिन क्षत्रियता भारी थी।
शकुनि ने जो पांसे फेंके,
वहीं द्रौपदी हारी थी।
सभा खचाखच भरी हुई थी,
सन्नाटा सब ओर था।
चेहरे मूक आँख थीं गीली,
हृदय कष्ट घनघोर था।
भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र सभी की,
सजल दृष्टियाँ नीचीं थीं।
पांडव चेहरे क्रोध भरे थे,
और मुट्ठियाँ भींचीं थीं।
दुर्योधन:
जाओ दु:शासन जल्दी से,
उस कुलटा को ले आओ।
नग्न करो उस द्रुपदसुता को,
मेरी जंघा पर बैठाओ।
वैशम्पायन:
निर्मल देह सुकोमल हिरणी,
सौन्दर्यगर्विता नारी थी।
द्रुपद सुता का शील हरण,
करने की पूरी तैयारी थी।
गौरवर्ण सुकुमार सी सुन्दर,
कृष्ण की परम सहेली थी।
लेकिन इस द्यूत सभा में,
वह असहाय अकेली थी।
केश पकड़कर दु:शासन ने,
सभा के मध्य घसीटा था।
उस रजस्वला सुकुमारी को,
भरी सभा में पीटा था।
केश राशियाँ बिखर रहीं थी,
उस अनिंद्य अभिमान की।
सरे आम प्रतिष्ठा बिखरी,
करुवंशी सम्मान की।
कातर दृष्टि से उसने जब
अपने पतियों को देखा।
अश्रुपूरित दीन नेत्र थे,
आँखों में चिंता की रेखा।
नहीं मिला जब कोई सहारा,
आँख बंद उसने कर लीं।
कृष्ण सखा को याद किया,
आँखें आँसू से भर लीं।
(द्रौपदी ने कृष्ण की प्रार्थना की)
कहाँ गए गोकुल के वासी,
कहाँ गए राधा के स्वामी।
कहाँ गए हे गोपी वल्लभ
कहाँ गए तुम अन्तर्यामी।
हे अर्तिनाषन हे जनार्दन,
हे सर्वस्वरूप सुख दाता।
हे व्रजनाथ, द्वारका वासी,
हे जीवों के जीवनदाता।
हे ब्रजनाथ रमापति माधव
भक्तों की प्रभुजी सुध लीजे
कुरुवंशी इस द्यूत सभा में
द्रुपदसुता की रक्षा कीजे
संकट आन पड़ा है भारी,
सब कुछ लुटने की तैयारी।
सुन लो मेरी टेर कन्हैया,
मेरी सुध ले लो बनवारी।
अंतर्मन में कृष्ण कन्हैया,
सबकी आँखों के तारे।
अब तो भगवन आन मिलो तुम,
कष्ट हरो मेरे सारे।
आर्त्तनाद तुम सुनो कन्हाई,
आ जाओ तुम मेरे भाई।
आज सखी की लाज बचा लो,
द्रुपद सुता ने टेर लगाई।
वैशम्पायन:
एक वस्त्र में अबला नारी,
आर्त्तनाद करती बेचारी।
पाषाणों की उस दुनिया में,
कृष्ण सखी सब कुछ थी हारी।
भक्त अगर दुःख में होता है,
तो भगवान कहाँ सोते हैं।
भक्त के पैरों के छालों को,
अपने अँसुअन से धोते हैं।
वस्त्ररूप ले कृष्ण पधारे,
मुस्काते पीताम्बर धारे।
भक्त की लाज नहीं लुटने दी,
द्रुपदसुता के कष्ट निवारे।
इक रेशा न उतरा तन से,
दु:शासन हारा कुलघालक।
बेदम होकर गिरा ज़मीं पर,
जैसे हो छोटा सा बालक।
अपनी सखी की लाज बचाने,
कृष्ण आज ख़ुद चीर बने।
द्रुपद सुता की लाज बचाकर,
कृष्ण महा रणधीर बने।
भीम सेन:
सुनो उपस्थित राजा सारे
आज प्रतिज्ञा धारूँगा।
इस कपटी दुःशासन को
मैं रण भीतर मारूँगा।
वक्ष चीर कर दुःशासन का
छाती का मैं रक्त पिऊँगा।
अगर नहीं मैं ये कर पाया
तो यह जीवन नहीं जीऊँगा।
हाथ उठा कर करूँ प्रतिज्ञा
काल का मुँह मैं मोडूँगा।
तू भी सुन ले ओ दुर्योधन
तेरी जंघा तोड़ूँगा।
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- मेरी बिटिया
- मेरे भैया
- मेरे लिए एक कविता
- मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
- मैं मिलूँगा तुम्हें
- मैं लड़ूँगा
- यज्ञ
- ये चाँद
- रक्तदान
- रक्षा बंधन
- वर्षा ऋतु
- वर्षा
- वसंत के हस्ताक्षर
- वो तेरी गली
- शक्कर के दाने
- शब्दों को कुछ कहने दो
- शिव आपको प्रणाम है
- शिव संकल्प
- शुभ्र चाँदनी सी लगती हो
- सखि बसंत में तो आ जाते
- सत्य के नज़दीक
- सीता का संत्रास
- सुनलो ओ रामा
- सुनो प्रह्लाद
- स्वप्न से तुम
- हर बार लिखूँगा
- हे केदारनाथ
- हे छट मैया
- हे क़लमकार
- लघुकथा
-
- अंतर
- अनैतिक प्रेम
- अपनी जरें
- आँखों का तारा
- आओ तुम्हें चाँद से मिलाएँ
- उजाले की तलाश
- उसका प्यार
- एक बूँद प्यास
- काहे को भेजी परदेश बाबुल
- कोई हमारी भी सुनेगा
- गाय की रोटी
- डर और आत्म विश्वास
- तहस-नहस
- दूसरी माँ
- पति का बटुआ
- पत्नी
- पौधरोपण
- बेटी की गुल्लक
- माँ का ब्लैकबोर्ड
- मातृभाषा
- माया
- मुझे छोड़ कर मत जाओ
- म्यूज़िक कंसर्ट
- रिश्ते (डॉ. सुशील कुमार शर्मा)
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- कुण्डलिया - डॉ. सुशील कुमार शर्मा - आशा, संकल्प
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