तुम्हारी आँखें

15-07-2025

तुम्हारी आँखें

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

तुम्हारी आँखें . . . 
झील हैं 
गहरी, शांत, 
और रहस्य से भरी। 
 
पहली बार देखा
तो लगा
जैसे कोई कहानी
बिना शब्दों के
मेरे भीतर उतर रही है। 
 
उनमें कोई हलचल नहीं थी 
फिर भी
मुझे डुबो देने को काफ़ी थीं। 
 
तुम्हारी पलकें
उस झील की सीमाएँ हैं
जहाँ दिन ढलते ही
नीले-सुनहरे रंग
आपस में घुलने लगते हैं। 
 
और मैं . . . 
हर बार
उस झील के किनारे आ खड़ा होता हूँ, 
उम्मीद में
कि शायद इस बार
कोई लहर
मुझे भीतर बुला ले। 
 
तुम्हारी आँखों में
कभी बचपन का सन्नाटा होता है, 
तो कभी
यौवन का मेघगर्जन, 
और कभी
बस एक ऐसी नमी
जो बिना बरसे भी
भिगो देती है रूह तक। 
 
वहाँ दर्द भी है, 
प्रेम भी, 
पर सबसे ज़्यादा
एक प्रतीक्षा है 
जैसे कोई नाव
बरसों से किनारे बँधी हो
किसी अनकहे सफ़र की आस में। 
 
तुम्हारी झील सी आँखों को
देखकर समझ आता है
कि गहराई को
न शब्द चाहिए होते हैं
न आवाज़ 
केवल एक नज़र, 
जो थाम सके सबकुछ
बिना तोड़े। 
 
और मैंने जब भी
उन आँखों में देखा, 
मुझे सिर्फ़ तुम नहीं, 
स्वयं को भी
थोड़ा और समझ आने लगा। 

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