पीले अमलतास के नीचे— तुम्हारे लिए

15-05-2025

पीले अमलतास के नीचे— तुम्हारे लिए

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)


पीले अमलतास के नीचे
जब ये पीले फूल झरते हैं, 
मुझे लगता है
जैसे हर फूल
मेरे उन शब्दों की माफ़ी माँग रहा हो
जो मैंने कहे नहीं, 
या कह दिए . . . 
बिना तुम्हारे मन की आवाज़ सुने। 
 
पीले अमलतास के नीचे
जब भी मैं बैठता हूँ, 
तुम्हारी याद
ठंडी छाँव की तरह
मेरे मन पर उतर आती है। 
तुम्हारा साथ—
सिर्फ़ एक रिश्ता नहीं, 
एक अहसास है
जो हर साँस में मेरी अपनी पहचान बन चुका है। 
 
मैं तुम्हें रोज़ देखता हूँ
उन छोटी बातों में—
जब तुम मेरी चाय में चीनी कम करती हो, 
या अपनी नींद बाँटकर
मेरी थकान समेट लेती हो। 
 
तुम मेरी ज़िम्मेदारी नहीं, 
मेरा सौभाग्य हो—
और फिर भी
कभी-कभी मेरी चुप्पियाँ, 
मेरी कठोरताएँ
तुम्हें अनचाहे बोझ की तरह
महसूस कराने लगी होगी। 
 
तुम्हारा साथ
सिर्फ़ एक जीवन नहीं, 
एक अभ्यास है—
नेह का, धैर्य का, 
और सबसे बढ़कर
मुझे प्रेम करना सिखाने का। 
 
मैं स्वीकारता हूँ, 
कई बार
अपने पुरुष होने के भ्रम में
मैंने तुम्हारी भावनाओं को
कम आँका, 
या उन्हें अनकहे छोड़ दिया
मानो तुम समझ ही जाओगी। 
पर प्रेम कोई अनुमान नहीं होता, 
वो संवाद माँगता है—
जो मैं बहुत बार नहीं दे पाया। 
 
मैं क्षमा चाहता हूँ—
उन सब पलों के लिए
जब मैं तुम्हारे आँसुओं की नमी को
अपनी थकान से ढँक गया, 
जब मैं तुम्हारे भीतर के डर को
सिर्फ़ तुम्हारी कल्पना मान बैठा, 
जब मैं तुम्हारे मौन को
समझने की बजाय
उससे कतराता रहा। 
 
तुमसे प्रेम करना
सिर्फ़ मन का विषय नहीं रहा, 
ये अब ज़िम्मेदारी है—
हर सुबह तुम्हारे चेहरे पर
मुस्कान बनाए रखने की, 
हर रात तुम्हारे मन के बोझ को
चुपचाप साझा करने की। 
 
मुझे कभी-कभी डर लगता है—
इस जीवन की भागदौड़ में
कहीं मैं तुम्हें खो न दूँ, 
कहीं हमारे बीच
कृत्रिम संवादों की दीवार न खड़ी हो जाए। 
तुम जो कहती नहीं, 
उस मौन को समझना
अब मेरा कर्त्तव्य है, 
प्रेम से भी ज़्यादा। 
 
मैं चाहता हूँ
तुम्हारे भीतर की स्त्री को
हर दिन फिर से जानना
तुम्हारी थकान, 
तुम्हारी आशाएँ, 
तुम्हारा वो सपना
जो तुमने मेरे लिए छोड़ा
पर मैं अब साथ जीना चाहता हूँ। 
 
जब भी हम दो पल
साथ बैठ पाते हैं, 
मुझे लगता है
मिलन केवल विवाह का नाम नहीं
ये उस क्षण की तीव्र उत्कंठा है
जब दो आत्माएँ
दुनिया की हलचल से बाहर
एक-दूसरे को
बिना शर्त थामे रहती हैं। 
 
आज, 
इस अमलतास के नीचे
मैं फिर से तुम्हारा साथ माँगता हूँ
उस सच्चे साथी की तरह
जो अब सीख चुका है
कि प्रेम केवल अधिकार नहीं, 
बल्कि प्रतिदिन का समर्पण है। 
 
मैं चाहता हूँ
तुम्हारी आँखों की थकावट भी
मेरी आँखों से बुझे, 
तुम्हारे मन की उलझन
मेरे शब्दों से सुलझे
और अगर कुछ न कह सकूँ
तो कम से कम इतना कर सकूँ
कि तुम महसूस करो
अब तुम अकेली नहीं। 
 
अगर कभी
हम फिर से नए हों
इस रिश्ते में भी, 
तो मैं तुम्हें वो प्रेम देना चाहता हूँ
जिसमें तुम्हें
न साबित करना पड़े
न सहना पड़े
बस तुम हो . . . 
और तुम्हारे साथ मैं। 
 
और अगर कभी
हम झरने लगें अमलतास की तरह, 
तो मेरी प्रार्थना है
हम अलग-अलग नहीं गिरें, 
बल्कि एक ही धागे में
बँधे रह जाएँ
जैसे पतझड़ में भी
एक छाया बनी रहती है
हमेशा साथ। 

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