पूर्ण अनुनाद

01-11-2025

पूर्ण अनुनाद

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

शांत पहाड़ों की गोद में बसे एक छोटे से शहर, नैनीताल से कुछ दूर, जहाँ झील की लहरें प्राचीन मंदिरों की घंटियों से टकराती थीं, वहाँ अविरल रहता था। अविरल, नाम के विपरीत, एक ठहरा हुआ, मौन व्यक्तित्व था। वह शहर के पुराने पुस्तकालय में दुर्लभ पांडुलिपियों का संरक्षण करता था। उसका जीवन किताबों के पन्नों, स्याही की ख़ुशबू और सुबह की शांत चाय तक सीमित था। उसने सामान्य प्रेम की सतह को कभी छुआ नहीं था; वह भीतर की पूर्णता की खोज में था।

एक दिन, उस पुराने पुस्तकालय में एक नई, युवा शोधकर्ता आई उसका नाम था सारा। सारा, अपने नाम के विपरीत, किसी भी सीमा में बँधने को तैयार नहीं थी। उसकी आँखों में हिमालय की बर्फ़ीली चोटियों सी शीतलता थी, लेकिन उसके विचारों में सूर्य सी सक्रियता और पैठ थी। वह प्राचीन भारतीय दर्शन में ‘ऊर्जा के सामंजस्य’ पर शोध करने आई थी।

अविरल, जो ‘पुरुष की सूर्य ऊर्जा’ का साक्षात् प्रतीक था शांत, एकाग्र, और ज्ञान की गहराई में पैठने वाला—शुरूआत में सारा की सक्रियता से असहज हुआ। सारा ‘स्त्री की चंद्रमा ऊर्जा’ का प्रतिनिधित्व करती थी—ठंडी, ग्रहणशील, किंतु अपने शोध के प्रति इतनी जिज्ञासु कि वह अविरल के मौन को बार-बार चुनौती देती थी।

उनके बीच का शुरुआती संवाद दो ध्रुवों के टकराव जैसा था।

“आप पांडुलिपियों को केवल संरक्षित करते हैं, अविरल जी,” सारा ने एक दिन कहा, “उन्हें समझते नहीं। ऊर्जा कभी रुकती नहीं, उसे प्रवाहित होना चाहिए।”

अविरल ने बिना आँख उठाए उत्तर दिया, “जो प्रवाह स्थिर न हो, वह नदी नहीं, बाढ़ कहलाता है, सारा जी। ऊर्जा को पहले भीतर स्थिर होना सिखाओ।”

सामान्य प्रेम की तरह, उनका संवाद भी सतह पर था तर्क-वितर्क, शब्दाडंबर, विचारों का आदान-प्रदान, लेकिन भीतर से वे अलग थे। अविरल जानता था कि वह अभी भी शरीर को छूने और भावनाएँ साझा करने के सामान्य चरण में है, जबकि उसकी आत्मा समाधि खोज रही थी।

एक शाम, जब पुस्तकालय का काम समाप्त हो चुका था, सारा एक प्राचीन योग ग्रंथ पर अटक गई। उसमें लिखा था, “पूर्णता तभी घटती है, जब पुरुष समर्पण करना सीखे और स्त्री मौन साक्षी होना।”

“इसका क्या अर्थ है, अविरल जी?”सारा ने पूछा, “पुरानी धारणाएँ स्त्री को समर्पण करने को कहती थीं, लेकिन यहाँ पुरुष को समर्पण की दीक्षा दी जा रही है?”

अविरल ने अपनी नज़र पांडुलिपि से उठाई। आज पहली बार, उसकी आँखों में केवल ज्ञान नहीं, बल्कि एक गहरी चमक थी। “पुरुष सूर्य है। वह सक्रिय है, हमेशा बाहर की ओर भागने वाला। उसका ‘अहम्’ उसे हमेशा करना सिखाता है। समर्पण उसका स्वभाव नहीं है। लेकिन जब वह प्रेम में अपनी सक्रिय ऊर्जा को समर्पित करता है, जब वह ‘मैं करने वाला हूँ’ के बजाय ‘मैं ग्रहण करने वाला हूँ’ की अवस्था में आता है, तभी वह स्त्री के भीतर के अनंत आकाश को देख पाता है। यह उसके अहंकार का समर्पण है, तभी वह स्वयं को जान पाता है यही उसका स्त्री के माध्यम से दीक्षा है।”

और सारा के लिए? अविरल ने आगे कहा, “स्त्री चंद्रमा है प्रकृति से ही ग्रहणशील और स्वागतपूर्ण। उसकी चुनौती बाहरी हलचल को शांत करके मौन और साक्षी होना है। उसे माँग या अधिकार की वृत्ति छोड़कर, केवल अस्तित्व के प्रवाह को बिना शर्त स्वीकार करना सीखना होता है यही उसकी पुरुष के माध्यम से दीक्षा है।”

इस व्याख्या ने दोनों को भीतर तक छू लिया। उस क्षण, वे केवल दो शोधकर्ता नहीं थे; वे दो ध्रुव थे जिन्होंने एक-दूसरे के सार को पहचाना था। उनके भीतर प्रेम अब केवल भावना नहीं रहा था वह ध्यानमय बन गया था।

उनके रिश्ते में बदलाव आया। अब अविरल ने सारा की सक्रियता को नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की। उसने उसके विचारों को ग्रहण करना सीखा, उसकी ऊर्जा को स्वीकार किया। उसने समर्पण करना सीखा। सारा ने भी अविरल के मौन की गहराई को भंग करना छोड़ दिया। उसने उसकी उपस्थिति में मौन साक्षी होना सीखा।

एक बार, वे दोनों पास की पहाड़ी पर सूर्योदय देखने गए। जब सूर्य की पहली किरणें पर्वतों को छूने लगीं, अविरल ने सारा का हाथ अपने हाथ में लिया। वह हाथ अब शरीर का हिस्सा नहीं था, बल्कि ऊर्जाओं का एक प्रवाह था।

अविरल ने महसूस किया कि अब उसे सारा से कुछ भी नहीं चाहिए । न तो उसकी प्रशंसा, न उसका साथ, न ही उसकी इच्छाओं की पूर्ति। सारा अब पूर्ण स्त्री नहीं थी जो उसकी इच्छाएँ पूरी करे, बल्कि वह उसके अस्तित्व का दर्पण बन चुकी थी। उसकी उपस्थिति में अविरल अपने ही मौन को और अधिक स्पष्टता से देख पाता था।

सारा ने भी महसूस किया कि अविरल अब उस पर कोई ‘अधिकार’ नहीं जताता। उसकी उपस्थिति में, वह अपनी पूरी रचनात्मकता, अपनी पूरी सक्रियता के साथ खिल सकती थी। उसे कोई डर नहीं था, कोई माँग नहीं थी, कोई शक्ति की लड़ाई नहीं थी।

जिस क्षण उनके हाथ मिले, उनके भीतर ‘पूर्ण अनुनाद’ घटित हुआ। उनकी ऊर्जाएँ एक स्वर में गूँज उठीं। तब न पुरुष रहा, न स्त्री; केवल एक ऊर्जा रह गई  पूर्णता की ऊर्जा।

वह मिलन दो ब्रह्मांडों का एक लय में विलय होना था। अविरल की सूर्य ऊर्जा और सारा की चंद्र ऊर्जा जागरूकता की अग्नि में मिलकर एक नई दिशा की ओर प्रवाहित होने लगीं। 

उस पर्वत की चोटी पर, सूर्योदय की सुनहरी रोशनी में, उनका स्पर्श अब केवल समाधि था। उस क्षण, वे अस्तित्व के सार को छू चुके थे। वे किसी ‘पूर्ण व्यक्ति’ को नहीं पाए थे, बल्कि उन्होंने दिव्य प्रिय को अपने भीतर ही महसूस कर लिया था। 

वे कभी शादी के बंधन में नहीं बँधे, न ही उनका प्रेम सामान्य दुनिया के नियमों से बँधा। उनका सम्बन्ध एक निरंतर अनुनाद था, एक ऐसा द्वंद्व जो शक्ति की लड़ाई नहीं, बल्कि एक आनंदमय नृत्य बन गया था। अविरल और सारा ने दुनिया को दिखा दिया कि प्रेम में “पूर्ण ऊर्जा” का मिलना किसी को पाना नहीं है, बल्कि स्वयं में खो जाना है खुलेपन, निडरता और पूर्ण उपस्थिति के साथ। 

और वह हरसिंगार का फूल, जो सुबह की धूसर मिट्टी पर समर्पण कर देता है, उनकी इस कथा का मौन साक्षी बन गया। क्योंकि वे दोनों अब जान चुके थे कि, जिस क्षण दोनों की ऊर्जाएँ एक स्वर में गूँजती हैं, उसी क्षण ईश्वर का द्वार खुल जाता है। 

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