करवा चौथ व्रत: श्रद्धा की पराकाष्ठा या बाज़ार का विस्तार?

15-10-2025

करवा चौथ व्रत: श्रद्धा की पराकाष्ठा या बाज़ार का विस्तार?

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

करवा चौथ का व्रत भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी के अटूट प्रेम और समर्पण का प्रतीक माना जाता है। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाने वाला यह व्रत विवाहित महिलाओं द्वारा पति की लंबी आयु और मंगल कामना के लिए निर्जल रखा जाता है। हालाँकि, पिछले कुछ दशकों में इस व्रत की चर्चा इसके मूल धार्मिक महत्त्व से हटकर, व्रत के नाम पर होने वाले बाज़ारीकरण (Commercialization) और इसकी शास्त्रोक्त प्रमाणिकता पर अधिक होने लगी है। 

करवा चौथ: क्या यह व्रत शास्त्रोक्त है?

करवा चौथ व्रत की सीधी और स्पष्ट शास्त्रोक्त प्रमाणिकता खोजना कठिन है। अधिकांश विद्वान और धर्मग्रंथ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह व्रत वेदों या उपनिषदों जैसे प्राचीनतम ग्रंथों में सीधे वर्णित नहीं है। 

मूल आधार:

यह व्रत मुख्य रूप से लोक-परंपरा (Folk Tradition) और क्षेत्रीय मान्यताओं पर आधारित है, जिसका जन्म संभवतः उत्तरी भारत में हुआ। इसका उल्लेख बाद के धार्मिक ग्रंथों जैसे स्कंद पुराण के ‘गणेश खंड’ और भविष्य पुराण के कुछ अध्यायों में मिलता है। इन ग्रंथों में इसे चतुर्थी व्रत के रूप में वर्णित किया गया है, जो संकट और विपत्तियों को दूर करने के लिए किया जाता है। 

करक चतुर्थी: इस व्रत को ‘करक चतुर्थी’ भी कहा जाता है, जहाँ ‘करक’ मिट्टी के उस पात्र (कुल्हड़) को कहते हैं जिसका उपयोग चंद्रमा को अर्घ्य देने और ब्राह्मण को दान देने के लिए किया जाता है। इसका विधान मुख्य रूप से परंपरा और व्रत कथाओं पर आधारित है, न कि किसी विशिष्ट वैदिक कर्मकांड पर। 

निष्कर्ष यह है कि करवा चौथ का व्रत स्मृति ग्रंथों और लोक-परंपरा पर आधारित है। इसका महत्त्व इसमें निहित श्रद्धा और भावनात्मक बल से है, न कि किसी अकाट्य वैदिक प्रमाण से। यह कई अन्य भारतीय त्योहारों की तरह ही है, जो समय के साथ समाज और संस्कृति के साथ विकसित हुए हैं। 

बाज़ारीकरण की तीव्र लहर

यदि इस व्रत की शास्त्रोक्त नींव गहरी नहीं है, तो भी इसका व्यावसायिक विस्तार (Market Expansion) अभूतपूर्व क्यों हुआ? इसका उत्तर आधुनिक उपभोक्तावाद, मीडिया और सामाजिक बदलाव में निहित है। 

मीडिया और सिनेमा का प्रभाव: 

90 के दशक के बाद भारतीय फ़िल्मों और टेलीविज़न धारावाहिकों ने करवा चौथ को एक भव्य, रोमांटिक और अनिवार्य उत्सव के रूप में चित्रित किया। बॉलीवुड ने इसे “प्रेम की पराकाष्ठा” का प्रतीक बनाकर मध्यम और उच्च वर्ग के बीच लोकप्रिय बनाया, जिससे यह उत्तर भारत की सीमाओं से बाहर निकलकर पूरे देश में फैल गया। 

सौंदर्य और फ़ैशन उद्योग:

इस व्रत ने सौंदर्य और फ़ैशन उद्योग को एक बड़ा बाज़ार दिया है। नए कपड़े, गहने, कॉस्मेटिक्स, ब्यूटी पार्लर के पैकेज (जो ‘करवा चौथ स्पेशल’ होते हैं), और विशेष मेहँदी के डिज़ाइन—ये सब मिलकर इस व्रत को एक ब्यूटी फ़ेस्ट में बदल देते हैं। व्रत अब उपवास से अधिक प्रदर्शन का विषय बन गया है। 

पति-पत्नी के रिश्तों का बदलता रूप:

आधुनिक समाज में जहाँ पति-पत्नी के रिश्ते में रूमानियत और खुलेपन का प्रदर्शन बढ़ा है, वहाँ करवा चौथ प्रेम व्यक्त करने का एक सार्वजनिक मंच बन गया है। पति द्वारा पत्नी को दिए जाने वाले महँगे उपहार (सरगी और सान्ध्य उपहार) आर्थिक क्षमता और प्रेम का प्रतीक बन गए हैं। 

उपभोक्तावाद की संस्कृति: बाज़ार ने चतुराई से इस व्रत की आध्यात्मिक सादगी को हटाकर इसे ख़रीदारी के उत्सव में बदल दिया है। यहाँ व्रत का सार गौण हो जाता है और उस पर ख़र्च किया गया पैसा मुख्य हो जाता है। 

करवा चौथ का बाज़ारीकरण इसकी मूल भावना पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। 

आर्थिक बोझ: यह व्रत मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग पर अनावश्यक आर्थिक बोझ डालता है, क्योंकि सामाजिक दबाव के चलते महिलाओं को महँगी ख़रीदारी करनी पड़ती है। 

भावनात्मक दबाव: जो महिलाएँ किसी कारणवश व्रत नहीं करतीं या बाज़ार के इस ‘फ़ैशन’ को नहीं अपनातीं, उन पर सामाजिक और भावनात्मक दबाव बढ़ जाता है। 

मुख्य उद्देश्य से भटकाव: व्रत का मूल उद्देश्य आध्यात्मिक शुद्धि, त्याग और पति के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करना है, लेकिन बाज़ारीकरण ने इसे बाहरी आडंबर और प्रदर्शन तक सीमित कर दिया है। 

करवा चौथ व्रत, अपनी लोक-परंपरा में, निःस्वार्थ प्रेम और समर्पण की एक सुंदर अभिव्यक्ति है। बाज़ारीकरण की चुनौती यह है कि हम इस व्रत के आंतरिक महत्त्व को बाहरी चमक-दमक के आगे फीका न पड़ने दें। यह समय है जब व्रती महिलाओं को यह समझना होगा कि उनके प्रेम की शक्ति मोदक या गहनों में नहीं, बल्कि उनके संकल्प और श्रद्धा में निहित है। 

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