तमसोमा ज्योतिर्गमय

01-11-2025

तमसोमा ज्योतिर्गमय

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

आज जब नगरों में रोशनी बह रही है, 
सड़कों पर जगमग है, 
मॉलों में भीड़ है, 
और घरों में सजावट के स्वर, 
मुझे लगता है 
दीपावली केवल बाहर नहीं, 
भीतर भी जलनी चाहिए। 
 
यह पर्व केवल सौंदर्य का नहीं, 
यह स्मृति का पर्व है 
उन जड़ों की, जिनसे हमने
पहली बार उजाला जाना था। 
जब अयोध्या ने वर्षों बाद
अपने राजा का स्वागत किया, 
जब जनमानस ने देखा 
सत्य की विजय लौट आई है। 
 
राम लौटे थे, 
पर उनके साथ लौटा था
धर्म का गौरव, 
न्याय का संतुलन, 
और मनुष्यता का विश्वास। 
 
दीपावली तभी से
केवल उत्सव नहीं रही, 
वह आत्मा की आलोक यात्रा बन गई 
अंधकार से प्रकाश तक, 
भ्रम से सत्य तक, 
अहंकार से समरसता तक। 
 
आज जब समाज
जाति, वर्ग, और विभाजन की लपटों में
फिर बँटने लगा है, 
दीपावली याद दिलाती है 
प्रकाश कभी अकेला नहीं जलता, 
उसकी दीप्ति साझी होती है। 
दीप तभी पूर्ण है
जब वह दूसरों के दीप को भी प्रज्वलित करे। 
 
इस पर्व का अर्थ यही है 
सामाजिक समरसता। 
जहाँ अमीर का दीप 
ग़रीब की झोंपड़ी तक पहुँचे, 
जहाँ शहर का उजाला 
गाँव की पगडंडी तक फैले। 
जहाँ कोई धर्म नहीं, 
सिर्फ़ मानवता दीये की लौ में झलके। 
 
दीपावली हमें सिखाती है 
कि परंपराएँ केवल स्मारक नहीं होतीं, 
वे जीवित श्वासें हैं। 
वे हमें जोड़ती हैं
हमारे पूर्वजों की मिट्टी से, 
हमारे गाँव की ख़ुश्बू से, 
हमारे त्योहारों के अर्थ से। 
 
आज जब कृत्रिम रोशनी ने
आकाश को ढँक लिया है, 
चलो एक दीया मिट्टी का जलाएँ 
जो धरती से जुड़ा हो, 
जो अपनी आभा से विनम्र हो। 
 
क्योंकि सच्चा उजाला
बल्बों में नहीं, 
सद्भाव में है। 
क्योंकि दीपावली केवल ख़रीदारी नहीं, 
करुणा की पुनर्स्थापना है। 
 
राम की परंपरा केवल
वनवास की कथा नहीं, 
वह यह भी सिखाती है 
कि त्याग, सेवा, और प्रेम
कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकते। 
 
जब हम किसी वृद्ध की आँखों में मुस्कान जगाते हैं, 
किसी बच्चे को नई किताब देते हैं, 
किसी श्रमिक को आदर देते हैं 
वहीं से शुरू होती है
रामराज्य की सच्ची दीपावली। 
 
इस पर्व का अर्थ तभी पूर्ण है
जब यह केवल घरों का नहीं, 
हृदयों का उजाला बने। 
 
चलो, इस बार
दीप जलाएँ अपनी भाषा में, 
अपने लोकगीतों में, 
अपने माटी की गंध में, 
ताकि यह उत्सव केवल तिथि न रहे 
बल्कि हमारी पहचान बन जाए। 
 
दीपावली हमें बुलाती है
अपनी मिट्टी की ओर, 
अपनी संस्कृति की गोद में, 
जहाँ परंपरा बोझ नहीं, 
आनंद है, 
जहाँ पूजा प्रदर्शन नहीं, 
संवेदना का स्पंदन है। 
 
आज हम संकल्प लें 
कि हम अपने भीतर राम को पुनः जीवित करेंगे, 
उनकी करुणा, उनकी मर्यादा, 
उनका विश्वास अपने कर्म में उतारेंगे। 
 
तभी तो
दीपावली दीयों से आगे बढ़ेगी, 
और बनेगी 
मानवता का उत्सव, 
संस्कृति का उत्सव, 
भारत की आत्मा का उत्सव। 
 
दीपावली केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, 
वह भारतीय चेतना का आलोक उत्सव है 
जहाँ राम का आदर्श, लक्ष्मी का आशीष, 
और समाज का समरस भाव
तीनों एक साथ जलते हैं। 
 
दीपावली हमें याद दिलाती है कि
प्रकाश बाँटने से बढ़ता है, 
और अपनी जड़ों से जुड़े रहना ही
सच्चे अर्थों में धर्म है। 
  
प्रकाश पर्व दीपावली पर आप सभी स्वजनों को राशि राशि शुभकामनाएँ! 
सुशील शर्मा

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