जीवन की अनकही धारा

15-07-2025

जीवन की अनकही धारा

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

सुबह की हल्की रोशनी, 
जब धीरे से फैलती है, 
रात का घना अँधेरा, 
चुपचाप पिघल जाता। 
पत्तियाँ सरसराती हैं, 
हवा का स्पर्श पाते, 
एक नया दिन, 
एक अनाम आशा लिए आता। 
 
हम बस चलते जाते हैं, 
इस पथ पर अनिश्चित, 
मंज़िलों की तलाश में, 
कभी खोते, कभी मिलते। 
अनगिनत चेहरे, 
क्षण भर को पास आते, 
कुछ निशान छोड़ जाते, 
कुछ विस्मृत हो जाते। 
 
शहरों का अंतहीन शोर, 
या गाँव की शांत निस्तब्धता, 
हर जगह छिपी है, एक अजीब
सी उदासी, एक प्रतीक्षा। 
 
भीड़ के बीच भी, 
मन अकेला रह जाता, 
अपनी ही धुन में, 
कुछ तलाशता, कुछ खोता। 
 
बचपन के धुँधले दिन, 
वो टूटे खिलौने, 
माँ की थपकी, और दादी की
कहानियों के कोने। 
जवानी का आवेग, 
सपनों की अनगढ़ उड़ान, 
हर पल प्रस्तुत करता, 
एक नया इम्तिहान। 
 
कभी डरते हैं गिरने से, 
कभी उड़ने का मोह, 
कभी रास्ता भटकते, 
कभी पाते नई राह। 
रिश्तों की नाज़ुक डोर, 
कभी कसती, कभी ढीली, 
खींचती रहती है, 
जीवन के अलग-अलग छोर। 
 
समय का ये दरिया, 
लगातार बहता है, 
मुट्ठी से फिसलती रेत सा, 
कुछ सिखाता। 
जो पल गुज़र गए, 
वो लौटकर नहीं आते, 
बस स्मृतियाँ बन, 
हृदय में बस जाते। 
चिंताएँ घेरती हैं, 
निराशा कभी छूती है, 
पर भीतर से एक आवाज़, 
निरंतर पुकारती है। 
 
ये जीवन है, हर मोड़ पर कुछ
नया, कुछ अप्रत्याशित, 
हर दर्द में छिपा है, 
एक गहन, अनमोल सबक़। 
कभी लगता है सब व्यर्थ है, 
कोई अर्थ नहीं, 
पर एक छोटा सा पल, 
सब बदल देता है कहीं। 
किसी की सादगी भरी मुस्कान, 
एक कोमल शब्द, 
दे जाता है जीने की, 
एक नई, असीम प्रतिबद्धता। 
 
तो चलो चलें, इस यात्रा में, 
बिना किसी गणना के, 
थाम लें हाथ, 
और भर दें जीवन में अनगिनत रंग। 
क्योंकि अंत में, 
बस यही शेष रहता है, 
मानवीयता का कोमल स्पर्श, 
और प्रेम का गहरा अनुराग। 

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