मेरी स्मृतियों का गाडरवारा

15-05-2025

मेरी स्मृतियों का गाडरवारा

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

(स्मृतियों का रेखा चित्र-सुशील शर्मा) 

 

बिलकुल— यहाँ एक सशक्त, आकर्षक और भावनात्मक भूमिका है जो पाठक को रेखाचित्र से भावनात्मक रूप से जोड़ देती है:

शहर बदलते हैं, नक़्शे खिंचते हैं, दीवारें ऊँची होती जाती हैं पर कुछ होता है जो न भूगोल में दर्ज होता है, न इतिहास में; वह बस स्मृति में बसता है। गाडरवारा मेरे भीतर बसी वही जगह है, जहाँ हर गली एक कहानी है, हर मोड़ पर कोई चेहरा याद आता है। यह लेख एक प्रयास है उस अपने शहर को फिर से छूने का, जो अब शायद बदल चुका है, पर मेरे भीतर आज भी वैसा ही है सजीव, आत्मीय, और अविस्मरणीय। आइए, मेरे साथ उस गाडरवारा में लौट चलें, जहाँ बचपन साँस लेता है और रिश्तों की महक आज भी हवा में घुली है। 

गाडरवारा—यह नाम मात्र उच्चारण में ही मन के किसी कोमल कोने में टीस-सी भर जाती है। आज जब मैं साठ की देहरी पार कर चुका हूँ, तब यह नाम महज़ एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि स्मृतियों की एक सजीव चित्रशाला बन चुका है—जिसमें अरहर की सौंधी गंध, शक्कर नदी की कलकल, डोल ग्यारस की रौनक़, और ओशो की मौन दृष्टि एक साथ झलकती है। 

यह शहर मेरे जीवन की आत्मा, मेरी स्मृतियों की गूँज, और मेरे व्यक्तित्व की नींव। यह कोई साधारण क़स्बा नहीं था, यह तो एक जीवंत चरित्र था, जो हर गली, हर चौक, हर ठेले और हर मंदिर-मस्जिद में धड़कता था। समय के साथ बहुत कुछ बदल गया, पर जो बचा है वह है मन में रचा-बसा वो गाडरवारा, जिसे मैं कभी छोड़ नहीं पाया। 

यह वही गाडरवारा है जहाँ की मिट्टी में ओशो ने अपने प्रश्न बोए थे, और जहाँ चौपालों में बालक चैतन्य ने भविष्य के ध्यानगुरु की झलक दी थी। जहाँ गलियों में उच्छव महाराज की चाट की ख़ुश्बू, और रामलीला के मंच पर आशुतोष राणा की आवाज़—इन दोनों में गाडरवारा की आत्मा गूँजती थी। 

जब मैं स्मृतियों के गलियारों में लौटता हूँ, तो सबसे पहले याद आता है रेलवे स्टेशन। सुदूर से आती ट्रेन की सीटी जैसे हमारे रोम-रोम को जगा देती थी। स्टेशन से शहर तक आने के लिए टैक्सियाँ नहीं, घोड़े-टाँगे चलते थे। उन टाँगों की चूड़ीदार झंकार और घोड़े की टापें किसी क़व्वाली की तरह हमारे मन में गूँजती थीं। शहर जैसे एक उत्सव था—जिसमें हम हर बार शामिल होते थे, नए कपड़े पहनकर नहीं, बल्कि वही पुराने अपनेपन की मुस्कान पहनकर। 

मेरे लिए गाडरवारा सिर्फ़ एक क़स्बा नहीं था, वह मेरा विस्तार था। पलोटन गंज से लेकर चौकी महल्ला तक, राठी तिगड्डे से पुरानी गल्ला मंडी तक, हर गली, हर नुक्कड़ पर मेरे बचपन की उँगलियाँ की छाप पड़ी हैं। दुपहरियों की कंचे की आवाज़ें, ग्यारह रुपए की शर्त के साथ क्रिकेट का खेल जिसमें LBW नहीं माना जाता था, शाम की आरती की घंटियाँ, और सुबह-सुबह रामायण पाठ की धीमी ध्वनि—सब मिलकर गाडरवारा का एक अद्भुत संगीत रचती थीं। 

गाडरवारा में संवेदनाएँ महज़ औपचारिकता नहीं थीं—वे जीवंत संवाद थीं। किसी के घर दुख हो तब, ‘अनरव’ पर जाना ख़ुशी में शामिल होना एक स्वाभाविक कर्म था। वहाँ न कोई निमंत्रण होता, न औपचारिकता, बस आँखें बोलती थीं, और मौन में मन जुड़ जाते थे। 

हिंदू-मुस्लिम एकता यहाँ किताबों का विषय नहीं, जीवन का स्वाभाविक प्रवाह थी। ईद पर सेवइयाँ बनतीं और होली पर मुस्लिम भाई रंग लेकर आते। मस्जिद की अज़ान और मंदिर की घंटियाँ एक साथ बजती थीं, और हम सबके लिए वह एक ही राग था—गाडरवारा। 

और फिर थी श्याम टॉकीज—फ़िल्मों का तीर्थ। वहाँ जाना किसी उत्सव से कम नहीं था। फ़िल्म के बीच में जब बिजली गुल हो जाती, तो हम शान्ति से अपने घर जाते, खाना खाते, और फिर टॉर्च लिए लौट आते—क्योंकि फ़िल्में अधूरी नहीं देखी जाती थीं, और हम भी रिश्तों को अधूरा नहीं छोड़ते थे। 

गाडरवारा वह स्थान था जहाँ रिश्ते बिना शर्तों के बनते थे। आज की तरह मोबाइल, चैट, स्टेटस नहीं थे, फिर भी हर कोई जानता था कि किसके घर क्या पक रहा है, कौन बीमार है, किसके बेटे का रिज़ल्ट आया है। 

मुझे आज भी याद है—हम दोनों भाई, एक ही साइकिल पर सवार होकर बी.टी.आई. स्कूल जाते थे। आगे मैं पैडल मारता और पीछे छोटा भाई किताबों से लदा होता। वो रास्ता आज भी मेरे भीतर जस का तस है—सिर्फ़ साइकिल नहीं रही, न ही वो रास्तों पर झूमते पेड़, न वो स्कूल की घंटियाँ। 

स्कूल की बात चली है तो जैन सर याद आते हैं। उनका पीरियड आते ही हम गोल हो जाते—बिलकुल योजना बनाकर। फिर निकल पड़ते रेलवे लाइन की ओर, या पुलिया की छाँव में बैठ कर किसी का टिफ़िन चखने। साथ पढ़ने वाले वे मित्र—हर कोई अब किसी शहर, किसी स्क्रीन या किसी ‘अनजान नंबर’ में सिमट गया है, पर मेरी यादों में वे आज भी वैसी ही हँसी और मस्ती के साथ मौजूद हैं। 

गाडरवारा कभी सिर्फ़ मेरा नहीं था—मैं उसका था। मैं उसे सिर्फ़ अपना घर नहीं, अपना शहर नहीं, अपना परिवार मानता था। उसका हर नुक्कड़, हर दरवाज़ा मुझे पहचानता था। कोई बताने की ज़रूरत नहीं थी कि मैं कौन हूँ। 

शक्कर नदी—अब जो सिकुड़ती चली गई है, कभी हमारी उमंगों की धारा हुआ करती थी। हम उसमें नाव नहीं, सपने तैराते थे। अब वह बँध चुकी है, जैसे हमारी जड़ें भी किसी विकास के नाम पर बाँध दी गई हों। 

आज जब NTPC की धूल, बिजली के खंभे, और चौड़ी सड़कें इस क़स्बे की पहचान बन चुकी हैं, तो मेरा मन किसी बीते हुए कालखंड में लौट जाना चाहता है, जहाँ संबंध थे, संवाद था, और समय धीमा बहता था। 

राजनीतिक रूप से गाडरवारा ने कई नेताओं को जन्म दिया—दोनों ही धाराओं से। पर उससे भी अधिक उसने हमें वह धरातल दिया जिस पर विचार, तर्क और संवेदना साथ-साथ विकसित हुए। यही तो ओशो की भूमि थी, और यही वह रंगभूमि भी जहाँ ‘रामराज्य’ का अभिनय होता था, जिसका संवाद आज भी आशुतोष राणा की लेखनी में जीवित है। 

पर आज . . . वह गाडरवारा कहीं छूट गया है। 

जो शहर कभी हमारे नाम से मुस्कुराता था, वो आज अजनबी-सा हो गया है। 

सड़कों की चौड़ाई बढ़ गई है, पर दिलों का स्पर्श सिकुड़ गया है। 

अपसंस्कृति ने अब पुराने मूल्यों की जगह ले ली है—संबंध अब इंस्टा स्टोरी हैं, और संवेदनाएँ ‘रेएक्शन’ हैं। 

NTPC की गर्द में अब वो गलियाँ धुँधली हो गई हैं, जहाँ कभी ओशो अपने मौन में गूँजते थे, जहाँ आशुतोष राणा की रामलीला में मन डूब जाता था। अब इंस्टाग्राम पर है, पर उस हुजूम की आत्मा कहीं खो गई है, जहाँ हम मिलकर झूमते थे, जात-पाँत से परे। 

आज का गाडरवारा शायद भौगोलिक रूप से विकसित है, राजनीतिक रूप से भी सजग है, पर भावनात्मक रूप से बिखरने की कगार पर है। 

और तब मैं ख़ुद से कहता हूँ—

“कहीं मैं ही तो नहीं छूट गया हूँ इस विकास की दौड़ में? 
या फिर वो गाडरवारा जो कभी मेरा था—अब उसे भी मेरी ज़रूरत नहीं रही? 
पर अब . . . कुछ छूटता सा है, कुछ टूटता सा है। 
गाडरवारा अब नक़्शों में है, पर शायद दिलों में उतना नहीं। 
संवेदनाओं की जगह स्क्रीन ने ले ली है, और रिश्तों की जगह नेटवर्क ने।” 

पर मेरे भीतर, आज भी एक गाडरवारा साँस लेता है—जिसकी गलियों में मैं अब भी उस बालक को देखता हूँ, जो कभी कंधे पर बस्ता लटकाए, उच्छव की चाट खाते हुए, रामलीला में लक्ष्मण बनने के सपने देखा करता था। 

वो गाडरवारा अब मेरी यादों का नगर है—जहाँ हर मोड़ पर एक परिचित मुस्कान है, हर दीवार पर किसी खोई हुई हँसी की परछाईं है। 

मैं उस गाडरवारा को नहीं खोना चाहता . . . क्योंकि वही तो हूँ—मैं। 

पर भीतर कहीं एक कोना अब भी वही है—जिसमें घोड़े की टापें हैं, शक्कर नदी की लहरें हैं, वो बीटीआई स्कूल वो आदरणीय गुरुजनों की डाँट है, और श्याम टॉकीज की गूँज है, आगे बढ़ने का शौक़ है, वही जवानी की तरन्नुम है। 

“मैं उसे सहेज रहा हूँ—अपनी यादों में, अपनी क़लम में, 
ताकि जब मैं न रहूँ, तो भी कोई एक गाडरवारा ज़िंदा रहे, 
मेरे शब्दों में, मेरी आत्मा में।” 

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