रेशमी धागे: सेवा का नया पथ
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
रीता के बालों की सफ़ेदी अब चमकने लगी थी, मानो चालीस पार की धूप ने उन पर अपनी मुहर लगा दी हो। सुबह की चाय बनाते हुए, उसने अनमने ढंग से पति सुधीर को आवाज़ दी। सुधीर अख़बार में डूबा हुआ था, संक्षिप्त ‘हूँ’ के अलावा कोई जवाब नहीं आया। सालों से यही रूटीन था। सुबह की चाय, नाश्ता, बच्चों का स्कूल जाना (अब तो बच्चे कॉलेज में थे, छुट्टियों में ही आते थे), सुधीर का ऑफ़िस और फिर शाम की वही नीरसता।
कभी-कभी रीता को लगता था कि इस घर में बस साँसें चल रही हैं, भावनाएँ कहीं गुम हो गई हैं। जब बच्चे छोटे थे, तो घर उनकी किलकारियों से गूँजता था। सुधीर भी तब अलग थे, उनकी आँखों में एक चमक थी, जो सिर्फ़ रीता के लिए होती थी। अब वो चमक धुँधली पड़ गई थी, जैसे किसी पुरानी तस्वीर का रंग उड़ जाए।
बच्चों के बड़े होने के बाद, घर का ख़ालीपन और ज़्यादा महसूस होने लगा। वे अपनी दुनिया में व्यस्त थे, उनके पास माँ की शिकायतों या अकेलेपन को सुनने का समय नहीं था। रीता जानती थी, उनकी अपनी ज़िंदगी है, पर फिर भी एक ख़ालीपन कचोटता रहता था।
शाम को जब सुधीर ऑफ़िस से लौटते, तो थकान उनकी आँखों में साफ़ दिखती थी। दो मिनट की औपचारिक बातचीत के बाद, दोनों अपने-अपने मोर्चों पर सिमट जाते। सुधीर टीवी देखते या लैपटॉप पर काम करते, और रीता कभी कोई सीरियल देखती या पुरानी पत्रिकाओं के पन्ने पलटती। बीच-बीच में उसे लगता, क्या यही ज़िंदगी है? क्या यही वो सपने थे जो उसने कभी देखे थे?
उसने कई बार सोचा कि वह रमेश से बात करे, अपने मन की उदासी को साझा करे। पर हर बार उसे लगता कि क्या फ़ायदा? उनके पास सुनने का वक़्त कहाँ है, या शायद अब उनकी दिलचस्पी ही ख़त्म हो गई है। उसे याद आता था, कभी छोटी-छोटी बातों पर घंटों बातें होती थीं, एक दूसरे की पसंद-नापसंद का कितना ध्यान रहता था। अब तो जैसे सब कुछ एक औपचारिकता बन गया था।
कभी-कभी कमला अपनी सहेलियों को देखती, कुछ के पति अब भी उनका ख़याल रखते थे, उन्हें कहीं घुमाने ले जाते थे, उनकी पसंद की चीज़ें लाते थे। उसे ईर्ष्या नहीं होती थी, बस एक गहरी टीस उठती थी। क्या उसके नसीब में यह सब नहीं था?
उस ख़ालीपन को भरने के लिए, रीता ने कभी-कभी सोचा कि वह भी कुछ करे, कोई क्लास ज्वाइन करे या कोई नया शौक़ पाले। पर फिर उसे लगता, किसके लिए? क्या ज़रूरत है? और फिर वह बिस्तर पर सिमट जाती, अँधेरे में अपनी तन्हाई से जूझती हुई।
एक दिन, पड़ोस की रमा आंटी ने उसे अपने साथ एक वृद्धाश्रम जाने के लिए कहा। रीता पहले हिचकिचाई, पर फिर ख़ाली वक़्त काटने के लिए तैयार हो गई। वहाँ जाकर उसने देखा, बहुत से बूढ़े लोग अकेले बैठे थे, अपनों की राह देखते हुए। किसी के बच्चे विदेश में थे, तो किसी ने उन्हें भुला दिया था। रीता को उन चेहरों में अपनी ही उदासी की झलक दिखी।
उस दिन घर लौटकर, रीता थोड़ी देर बालकनी में बैठी रही। आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। उसने गहरी साँस ली। रमा आंटी ने अगले हफ़्ते फिर आने को कहा, और रीता ने हाँ कह दिया।
धीरे-धीरे, वृद्धाश्रम जाना रीता के जीवन का एक अहम हिस्सा बन गया। पहले वह सिर्फ़ वक़्त बिताने जाती थी, पर जल्द ही उसे उन चेहरों में एक अपनापन महसूस होने लगा। उसने देखा कि ये लोग सिर्फ़ अकेले नहीं थे, बल्कि उन्हें सुनने वाला, उनसे बात करने वाला, उनके दर्द को समझने वाला कोई नहीं था। रीता ने अपनी कहानियाँ सुनानी शुरू कीं, उनकी कहानियाँ सुनीं, उनके लिए गीत गाए, कभी-कभी उनके कपड़े धोने या उन्हें खाना खिलाने में भी मदद करने लगी।
वहाँ एक बूढ़ी अम्मा थीं, जो घंटों बस दीवार को घूरती रहती थीं। रीता ने उनके हाथ पर हाथ रखा, उनसे मीठी बातें कीं, उन्हें उनकी जवानी के क़िस्से सुनाने को कहा। धीरे-धीरे उस अम्मा की आँखों में चमक लौटने लगी। एक और बुज़ुर्ग थे जो बहुत बीमार रहते थे, रीता घंटों उनके पास बैठती, उनका हाल पूछती। उनकी छोटी-छोटी ज़रूरतों का ध्यान रखती।
कमला को अब अपने घर का ख़ालीपन नहीं खलता था। उसका मन अब भरा-पूरा महसूस होता था। उन वृद्धों की सेवा में उसे जो संतोष मिलता था, वह किसी और चीज़ में नहीं था। उसकी हँसी अब सच्ची थी, उसकी आँखों में एक नई चमक थी। सुधीर को भी यह बदलाव महसूस हुआ। वह देखता कि रीता अब ज़्यादा ख़ुश रहती है, व्यस्त रहती है। उसने कभी पूछा नहीं, पर मन ही मन वह भी ख़ुश था।
रीता ने अपना सब कुछ उन वृद्धों की सेवा में लगा दिया। उसके रेशमी धागे अब केवल घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं थे, बल्कि वे अनगिनत चेहरों पर मुस्कान बिखेर रहे थे, अनसुनी कहानियों को आवाज़ दे रहे थे, और अनकहे एहसासों को एक नया आयाम दे रहे थे। उसने अपनी तन्हाई में एक नया परिवार खोज लिया था, जो उसे निःस्वार्थ प्रेम और अपनेपन से भर रहा था।
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