सत्य के दो मुख

01-11-2025

सत्य के दो मुख

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

धनहीन पुरुष
प्रेम कर सकता है 
सपनों के वायुमंडल में
वह स्त्री के लिए
चाँद की ठंडी रोशनी बटोर लाता है, 
आँसुओं को मोती बना
उसे अर्पित करता है, 
और उसके स्पर्श में
अपना राज्य खोज लेता है। 
 
पर जब जीवन
अंकगणित माँगता है, 
चूल्हे में जलने को लकड़ी
और थाली में रोटी की आकांक्षा रखता है, 
तब प्रेम के नक्षत्र
कितनी जल्दी धुँधला जाते हैं! 
वहीं से आरंभ होता है
पति होने का व्यावहारिक संघर्ष 
जहाँ प्रेम पर्याप्त नहीं होता, 
जहाँ ज़िम्मेदारियाँ ही
प्रेम की परीक्षा बन जाती हैं। 
 
और वहीं, 
सुंदर स्त्री 
जिसके लिए प्रेम
क्षणिक ज्वाला है, 
वह सुंदर हो सकती है, 
मोहक, आकर्षक, 
पर जब घर की देहरी पर
विश्वास का दीपक माँगता है, 
वह लौ स्थिर नहीं रह पाती। 
 
प्रेम में वह नर्तकी है, 
विवाह में वह परीक्षा। 
और जो सत्य से भागे 
वह किसी की पत्नी नहीं, 
सिर्फ़ एक स्मृति रह जाती है, 
कभी मीठी, कभी विषादभरी। 
 
संबंधों की भूमि पर
केवल वही टिक पाता है
जो प्रेम को ज़िम्मेदारी बनाना जानता है, 
और जो निष्ठा को
स्वतंत्रता की तरह जी सकता है। 
 
क्योंकि प्रेम का अर्थ
केवल आलिंगन नहीं, 
सहधर्म भी है। 
और नारी-पुरुष 
तभी पूर्ण हैं, 
जब वे एक-दूसरे में
सत्य का निवास देखें, 
सुख का नहीं। 

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