दरकता मन
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
शहर की तेज़ रोशनी के बीच, फ़्लैट नंबर 401 का ड्रॉइंग रूम बहुत सजा-धजा था, किन्तु भीतर से वीरान दुनिया था। काँच की मेज़ पर रखी सुनहरी फ़्रेम वाली तस्वीर, जिसमें अरुण और शारदा एक दशक पहले खिलखिला रहे थे, आज भी मुस्कान बिखेर रही थी—पर वह मुस्कान अब केवल एक मृत स्मृति थी।
शाम का गहरा सन्नाटा पसरा था। बाहर भागती ज़िन्दगी का शोर भी, भीतर के उस मौन को भेद नहीं पा रहा था, जो वर्षों की उपेक्षा से उपजा था।
शारदा, अपने हाथ में कॉफ़ी का कप थामे, खिड़की के पास बैठी थी। उसकी दृष्टि बाहर की ओर थी, जहाँ सूरज की अंतिम किरणें किसी थके हुए यात्री की तरह विदा ले रही थीं।
अरुण भीतर आया। उसके चेहरे पर दिन भर की व्यावसायिक व्यस्तता की गहरी रेखाएँ थीं। उसने सोफ़े पर बैठते हुए बस इतना कहा: “कॉफ़ी?”
शारदा धीरे से, बिना मुड़े बोली, “बना ली है। आपकी मेज़ पर रख दी है।”
उनका संवाद अब इतना ही संक्षिप्त और कार्यात्मक रह गया था। अब प्रेम के लिए नहीं, बल्कि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शब्द उच्चारित होते थे।
अरुण ने कप उठाया। कॉफ़ी ठंडी थी। उसे लगा जैसे उसका पूरा रिश्ता इसी कॉफ़ी की तरह हो गया है बन तो गया था प्रेम की ऊष्मा से, पर अब सिर्फ़ ठंडा हो चुका है।
अरुण ने उदासीनता से कहा “आज फिर देर हो गई। वह नया प्रोजेक्ट . . .”
“समय किसे नहीं हुआ, अरुण? समय तो घड़ी की सूई की तरह सबके लिए एक ही गति से चलता है। बस, हम ही तय करते हैं कि कहाँ रुकना है,” शारदा खिड़की से मुड़ी पर दृष्टि अरुण पर नहीं थी।
यह कोई सीधा आरोप नहीं था, यह एक मार्मिक शिकायत थी जो मौन की दीवारों से टकराकर लौट आई थी।
“तुम्हें लगता है कि मैं जानबूझकर . . . ” अरुण बोला।
शारदा अरुण को बीच में टोकते हुए बोली उसकी आँखों में पहली बार वेदना का स्पर्श था, “जानबूझकर नहीं। तुम अब ‘प्रयास’ नहीं करते। पहले तुम्हें देर होती थी तो तुम फोन पर पूछते थे, ‘कैसी हो? आज कुछ पढ़ा क्या?’ अब तुम सिर्फ़ ‘प्रोजेक्ट’ की बात करते हो। हम इतने क़रीब रहते हुए भी, एक दूसरे के ब्रह्मांड से पूरी तरह से बाहर हो चुके हैं।”
उसकी आवाज़ में एक तरल पीड़ा थी, जो अरुण के हृदय को चुभ गई।
अरुण अपनी झुँझलाहट छिपाते हुए बोला, “यह सब अति-संवेदनशीलता है, शारदा। रिश्ते समय नहीं माँगते, विश्वास माँगते हैं। क्या तुम मुझ पर विश्वास नहीं करतीं?”
शारदा तस्वीर की ओर देखते हुए, बोली उसकी आँखें नम हो गईं, “विश्वास तो है, अरुण। मुझे पूरा विश्वास है कि तुम अपनी व्यावसायिक दुनिया में सफल होगे। पर मैं पूछ रही हूँ, क्या इस घर में अब सिर्फ़ विश्वास ही बचा है? सहभागिता कहाँ गई? वह छोटी-सी बात कहाँ गई जब तुम मेरे बालों में उलझे हरसिंगार के फूल को देखकर मुस्कुराते थे? अब तो तुम पूछने भी नहीं आते कि मेरा दिन कैसा बीता।”
शारदा के ये शब्द किसी धारदार हथियार से कम नहीं थे। अरुण को याद आया कि उनके बीच आख़िरी भावनात्मक संवाद कब हुआ था। यादें, तेज़ दौड़ने वाले घोड़ों की तरह आईं और चली गईं।
अरुण सोफ़े से उठकर, उसके पास आया “शारदा . . . मैं जानता हूँ कि व्यस्तता . . .”
शारदा ने हाथ के इशारे से रोकते हुए, कहा (उसकी आँखों में अब कोई क्रोध नहीं, सिर्फ़ करुणा थी), “यह व्यस्तता नहीं है, अरुण। यह प्राथमिकताओं का दरकना है। आज हमारे रिश्ते के बीच कोई तीसरा व्यक्ति नहीं आया। कोई बड़ा झगड़ा नहीं हुआ। यह रिश्ता धीरे-धीरे दरका है एक अदृश्य दीमक की तरह, जो रोज़ाना की उपेक्षा, मौन और दिखावे की मुस्कुराहटों से पल रहा था।”
उसने अपनी कॉफ़ी का ठंडा कप मेज़ पर रखा।
“हमारा प्रेम एक दुर्लभ किताब था, जिसे हमने सहेजकर अलमारी में रख दिया। रोज़ झाड़-पोंछकर चमकाते रहे, पर उसे खोलकर पढ़ना भूल गए। और अब, जब खोलने का समय आया है, तो उसके पन्ने हवा से नहीं, बल्कि उपेक्षा से चिपक चुके हैं। प्रेम की चाशनी जम चुकी है,” शारदा का स्वर बर्फ़ जैसा सर्द था।
अरुण उस मार्मिक सच्चाई के सामने निःशब्द खड़ा था। उसने महसूस किया कि वे दोनों एक ही छत के नीचे रहते हुए भी, अपनी-अपनी एकांत दुनिया में क़ैद हैं। दोनों के बीच मौन की एक दीवार बन चुकी थी, इतनी पारदर्शी कि वे एक-दूसरे को देख सकते थे, पर छू नहीं सकते थे।
अरुण ने काँपते हाथों से शारदा का हाथ पकड़ना चाहा। पर शारदा ने धीरे से अपना हाथ खींच लिया।
“शायद यही वर्तमान है, अरुण। जहाँ हम चीज़ों को तो सहेज लेते हैं, पर रिश्तों को जीना भूल जाते हैं,” शारदा ने गहरी साँस खींचते हुए कहा।
ड्रॉइंग रूम की रोशनी अब डिम हो चुकी थी। कमरे में सिर्फ़ दो टूटे हुए हृदय थे, और उनके बीच वह मौन की दीवार, जो रिश्तों के दरकने की सबसे दर्दनाक और मार्मिक कहानी कह रही थी
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- गर्मी की छुट्टी
- चिड़िया का दुःख
- चिड़िया की हिम्मत
- पतंग
- पानी बचाओ
- बादल भैया
- बाल कविताएँ – 001 : डॉ. सुशील कुमार शर्मा
- बेचारा गोलू
- मुनमुन गिलहरी
- मैं कुछ ख़ास बनूँगा
- मैं ही तो हूँ— तुम्हारे भीतर
- लोरी
- लौकी और कद्दू की लड़ाई
- हम हैं छोटे बच्चे
- होली चलो मनायें
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