डॉ. सिंघई का ‘संतुलित’ संसार

01-06-2025

डॉ. सिंघई का ‘संतुलित’ संसार

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

 

डॉ. सिंघई, अपने नाम के आगे ‘आयुर्वेद भूषण’ लगाए घूमते थे, मगर उनकी देहयष्टि देखकर कोई भी अनभिज्ञ व्यक्ति उन्हें ‘तंदुरुस्ती के दुश्मन’ का तमगा दे सकता था। पेट उनका ऐसे बाहर निकला रहता था, जैसे उन्होंने अपने भीतर ब्रह्मांड का समस्त गुरुत्वाकर्षण केंद्र बना लिया हो, और चेहरे पर हमेशा एक तैलीय चमक, मानो कोई विज्ञापन ब्रेक चल रहा हो। 

आजकल डॉ. सिंघई ने एक नया ‘मिशन’ पकड़ा हुआ था: संतुलित भोजन। उनके क्लीनिक में घुसते ही अब दवाइयों की गंध से ज़्यादा, लेक्चर की गंध आती थी। दीवारों पर लगे चार्ट, जिनमें पत्ता गोभी का परिवारिक चित्र, और गाजर का वंशवृक्ष बना होता था, आने वाले मरीज़ों को पहले ही डरा देते थे। 

“तो, श्रीवास्तव जी,” डॉ. सिंघई अपने विशाल डेस्क के पीछे से दहाड़े, “क्या बताया था मैंने आपको? मल्टीग्रेन की रोटी! हाँ! आपके पेट में जो गैसीय ब्रह्मांड घूम रहा है न, उसे सिर्फ़ यही शांत कर सकती है।”

श्रीवास्तव जी बेचारे अपनी डगमग कुर्सी पर ऐसे बैठे थे, जैसे किसी स्कूल के प्रिंसिपल की क्लास में आ गए हों।

”जी डॉ. साहब, पर वो . . .”

“पर क्या? परवल की सब्ज़ी! परवल की सब्ज़ी क्यों नहीं खा रहे आप? दाल तो घर में बनती ही होगी, पर कौन सी? अरहर, मूँग, मसूर–नाम गिनाएँ? नहीं, नहीं, नहीं! मैं बताता हूँ कौन सी दाल खानी है! और हाँ, सुबह-सुबह उठकर भीगे बादाम और अखरोट! खाते हैं?” डॉ. सिंघई की आवाज़ में एक अजीबोग़रीब ‘पौष्टिकता’ थी, जैसे वे ख़ुद इन सारी चीज़ों को खाकर नहीं, बल्कि सिर्फ़ इनका नाम लेकर ही ऊर्जावान हो गए हों। 

मज़ा तो तब आता था, जब डॉ. सिंघई ख़ुद अपने ‘संतुलित भोजन’ का बखान करते-करते अचानक अपने सहायक को इशारा करते। सहायक तुरंत एक बड़े से थर्मस और एक स्टील के टिफ़िन के साथ प्रकट होता। डॉ. सिंघई बड़े ठाठ से थर्मस से अपनी ‘हर्बल टी’ निकालते, जिसमें से घी की तेज़ गंध आती थी, और टिफ़िन खोलते, जिसमें एक मोटी-सी पराँठे नुमा चीज़ और साथ में बेसन के लड्डू होते थे। 

“यह देखिए श्रीवास्तव जी,” वे पराँठे का एक निवाला तोड़ते हुए कहते, “यह है मेरा मल्टीग्रेन स्पेशल पराँठा, इसमें मैंने ख़ुद अपने हाथों से . . . ख़ैर, आप नहीं समझ पाएँगे। और ये लड्डू . . . ये ऊर्जा के लिए हैं। आप भी खाइएगा।” वे इतना कहकर एक और लड्डू अपने विशाल मुँह में डालते, और उनके गालों पर ‘संतुलित’ तेल की चमक और बढ़ जाती। 

उनकी सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि वे दूसरों को जो खाने की सलाह देते थे, ख़ुद उसका पालन शायद ही करते हों। उनकी अपनी सुबह की ‘मल्टीग्रेन’ रोटी अक्सर मैदे की कचौरी और छोले में बदल जाती थी, और ‘परवल की सब्ज़ी’ की जगह किसी तेज़ मिर्च वाले आलू-पनीर की सब्ज़ी ले लेती थी। दाल का तो ख़ैर क्या कहना, वह अक्सर किसी रेस्टोरेंट के ‘बटर चिकन’ में बदल चुकी होती थी। और भीगे बादाम-अखरोट? वे शायद ही कभी उनकी जीभ तक पहुँच पाते थे, क्योंकि रात के खाने के बाद आइसक्रीम और गुलाब जामुन का सत्र शुरू हो जाता था। 

एक बार एक मरीज़ ने हिम्मत करके पूछ ही लिया, “डॉ. साहब, आप इतनी ‘संतुलित’ बातें करते हैं, तो आपकी सेहत . . . “

डॉ. सिंघई ने तुरंत बात काटी, हाथ हिलाते हुए बोले, “अरे, मेरी बात छोड़िए! मैं तो शोध कर रहा हूँ। ये सब प्रयोग मैं अपनी देह पर कर रहा हूँ, ताकि आप लोगों को सही ज्ञान दे सकूँ। मैं जो सलाह देता हूँ, वह मेरे व्यक्तिगत जीवन के लिए नहीं, बल्कि मानव समाज के व्यापक कल्याण के लिए है!”

और इतना कहकर, डॉ. सिंघई एक गहरी साँस लेते, जिसका उद्देश्य शायद अपने विशाल पेट को अंदर खींचना था, मगर वह प्रयास हमेशा की तरह असफल रहता। और फिर वे एक नई ऊर्जा के साथ अगले मरीज़ को ‘संतुलित आहार’ का ज्ञान देने को तैयार हो जाते, जबकि उनका अपना शरीर चीख-चीखकर कहता “मुझे बचाओ, इस संतुलन से!”

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