भोर की अनकही

01-12-2025

भोर की अनकही

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

मन के भीतरी आकाश में
कभी–कभी ऐसा होता है
कि गीतों के स्वर
जैसे अपनी ही प्रतिध्वनि से भयभीत हो उठें
अर्धनिद्रा में डूबे
अधूरी पंक्तियों की तरह
हकलाने लगें, टूटने लगें, 
मानो शब्दों के भीतर बसी आत्मा
किसी अज्ञात विराम पर ठिठक गई हो। 
 
हम उस ठहराव में
कितनी ही रातों तक
अपनी ही थकान को ढोते रहे
जीवन के सूखे कंधों पर
एक अनाम उम्मीद का बोझ लिये
मानो चाँद के लिए तड़पता
चकोर हमीं हों, 
और भोर के लिए विनती करता
अंधेरे को चेहरों पर ढोते हुए
ख़ामोशी तक को थका देते हों। 
 
इच्छाएँ
वे थीं, हरी-नवेली कोंपलों की तरह। 
चाह यह थी कि हर कली
किसी तितली की साँस से महक उठे, 
हर अश्रुपूर्ण दृष्टि को
किसी उजले स्पर्श का सहारा मिले, 
हर पतझड़ के रौंदे उपवन में
फिर से एक सुगंधित साँस उग आए। 
पर नियति
वह एक अनलिखा निर्णय है, 
जिस पर किसी की उँगलियों का
कोई हस्ताक्षर नहीं होता। 
 
हम बूँद रहे
लहरों के सम्मुख, 
कंपित, अस्थिर, 
और फिर भी समर्पण का साहस लिए हुए
इस बुझी हुई देह में
कोई अंतिम ज्योति खोजते रहे। 
अश्रुओं की रीत चुकी नदी में
हृदय का संगीत ढूँढ़ते रहे, 
रात की विषादमयी गोद पकड़कर
भोर के अस्तित्व की भीख माँगते रहे। 
 
धरती पर कौन है
जो बिना दर्द के बड़ा हुआ हो? 
कौन है जो साँझ की परछाइयों में
कभी धुँधला न पड़ा हो? 
कौन सूर्य है
जो स्वयं की ज्वाला में
अगणित बार गलकर
उषा को जन्म न देता हो? 
कौन पथिक है जो मुक़ाम तक
बिना छाले, बिना भटके पहुँच पाया हो? 
 
शरीर
यह तो एक क्षणिक निवास है, 
प्राण
एक अनंत यात्रा की गूँज, 
और चेतना
मुक्ति की खोज में बादलों सी
अनवरत भटकती हुई रोशनी। 
फूल और शूल
दोनों अपनी-अपनी कथा कहते हैं, 
और हम
सत्य की परिधि में
सृजन और विनाश दोनों को
एक ही श्वास में नापते हुए
शांत सिन्धु की गहराई में
एक हल्की-सी हिलोर माँगते हैं। 
 
जीवन की यह खोज
भोर की ओर झुका हुआ वह क्षण है
जो कहता है
अँधेरा चाहे जितना भी हो, 
किसी एक अदृश्य ऊष्मा के भरोसे
हम अभी भी
सुबह के होने की प्रतीक्षा कर सकते हैं। 

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