हरसिंगार

15-10-2025

हरसिंगार

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

 

साँवली, धूसर मिट्टी पर बिछी, सफ़ेद पंखुड़ियों की वह चादर, उस रात के मौन त्याग की कहानी कह रही थी। हरसिंगार के फूल, जिन्हें कुछ लोग पारिजात भी कहते हैं, किसी तपस्वी की तरह रात्रि के एकांत में खिलते हैं, अपनी संपूर्ण सुगंध वातावरण में घोल देते हैं, और सूर्य की पहली किरण पड़ने से पहले ही धरती पर स्वयं को समर्पित कर देते हैं। ये फूल शाश्वत प्रेम की तरह हैं नश्वर, फिर भी अमर। 

उस सुबह, भोर होने से ठीक पहले, माधव अपने बरामदे से निकलकर उस पुराने आँगन की ओर चले, जहाँ वर्षों पुराना हरसिंगार का वृक्ष खड़ा था। पैरों के नीचे की कच्ची मिट्टी ओस से नम थी, और हवा में फूलों की वह तीखी, भीनी-भीनी सुगंध घुली हुई थी, जो सीधे आत्मा को स्पर्श करती है। 

माधव की आँखें उन गिरे हुए फूलों पर टिकी थीं। मिट्टी के गहरे रंग के कैनवस पर बिखरी सफ़ेद और नारंगी डंठल वाली पंखुड़ियाँ, किसी कुशल चित्रकार की अमूल्य कलाकृति लग रही थीं। लेकिन माधव के लिए यह केवल फूल नहीं थे। यह स्मृतियों का एक मौन कोलाज था। 

वह धीरे से झुककर, ठंडी, गीली मिट्टी से कुछ फूलों को उठाता है। इन पंखुड़ियों को छूते ही, उसके भीतर तीस साल पुरानी एक स्मृति जीवंत हो उठी उसकी प्रिया, प्रिया। 

प्रिया को हरसिंगार से अगाध प्रेम था। वह कहती थी, “माधव, यह फूल कितना सच्चा है! यह कभी डाल पर अपनी सुंदरता का अहंकार नहीं दिखाता। यह जानता है कि इसका अर्थ केवल देना है, और इसलिए सुबह होने से पहले ही यह सब कुछ पृथ्वी को सौंप देता है।”

माधव को याद आया, जब उनका नया-नया विवाह हुआ था, तब वह हरसिंगार का पौधा प्रिया ही लेकर आई थी। तब वह पौधा एक पतली टहनी जैसा था, जो आज आँगन पर घनी छाया देता है। प्रिया रोज़ भोर में उठकर, सिर झुकाकर इन फूलों को एकत्र करती थी। वह कभी इन्हें माला नहीं बनाती थी, बल्कि बस अपनी अंजुली में भरकर इनकी सुगंध लेती थी, और फिर इन्हें पूजा घर में समर्पित कर देती थी। 

उन दिनों की कई रातें माधव को याद आईं। जब बच्चे सो जाते थे, और घर का कोलाहल शांत हो जाता था, तब वे दोनों चुपके से उस हरसिंगार के पेड़ के नीचे आकर बैठते थे। वृक्ष की पत्तियाँ चंद्रमा की रोशनी में झिलमिलाती थीं, और फूलों की धीमी-धीमी वर्षा होती रहती थी। उस मौन में ही उनका सारा संवाद हो जाता था। प्रिया कभी शिकायत नहीं करती थी, बस अपनी हथेली आगे कर देती थी, जिस पर एक ताज़ा गिरा हुआ फूल टिक जाता था। उस फूल की सुगंध में उन्हें अपने भविष्य की निश्चिंतता महसूस होती थी। 

लेकिन आज . . . आज प्रिया नहीं थी। वह पाँच साल पहले, ठीक कार्तिक मास की शुरूआत में, इस संसार को छोड़कर चली गई थी। माधव को महसूस हुआ कि प्रिया का जाना भी उस हरसिंगार के फूल जैसा ही था—निर्मम, निःस्वार्थ और अत्यंत शीघ्र। 

माधव की आँखों के कोर गीले हो गए। उसकी आत्मा में विरह की एक गहरी वेदना उठी। हरसिंगार हर सुबह उसे यही याद दिलाता था कि सुंदरता क्षणभंगुर है, और प्रेम की सुगंध भी अंततः शून्य में विलीन हो जाती है। 

“प्रिया . . . ” उसके होंठों से फुसफुसाहट निकली। “तुमने भी तो यही किया। अपनी सुगंध, अपना स्नेह, सब कुछ हमें देकर, भोर होने से पहले ही चली गई।”

वह अब और अधिक ध्यान से फूलों को चुनने लगा। वह फूल, जो मिट्टी और ओस के स्पर्श से और भी कोमल हो गए थे, उसकी हथेली में एक सफ़ेद आँसू जैसे लग रहे थे। अचानक, माधव को एक गहन अनुभूति हुई। 

उसने सोचा, “हरसिंगार क्यों गिर जाता है? क्योंकि वह डाल पर रहकर मुरझाना नहीं चाहता। वह चाहता है कि लोग उसे उसकी चरम सुंदरता और सुगंध की अवस्था में याद रखें। वह नहीं चाहता कि कोई उसकी डाल पर उसकी सूखी हुई, बेजान पंखुड़ियों को देखे।”

प्रिया का जीवन भी ऐसा ही था। वह हमेशा मुस्कुराहट, करुणा और सेवा से भरी रही। जब उसकी बीमारी ने शरीर को कमज़ोर करना शुरू किया, तो उसने कभी शिकायत नहीं की। उसने विदा भी तब ली, जब उसकी यादें सबसे अधिक मधुर थीं ठीक हरसिंगार की तरह, जो अपनी सुगंध की चरम सीमा पर स्वयं को बलिदान कर देता है। 

माधव ने आज समझा कि हरसिंगार मृत्यु का प्रतीक नहीं, बल्कि त्याग और अनवरत प्रेम का प्रतीक है। फूल का डाल से अलग होना दुखद है, लेकिन उसका धरती पर सुगंध बिखेरना ही उसका उद्देश्य है। 

वह अपने दोनों हाथों की अंजुली में सारे फूल जमा कर लेता है। अब फूलों की संख्या इतनी अधिक थी कि उनकी सुगंध माधव के रोम-रोम में समाने लगी। वह वापस घर के भीतर गया और प्रिया की तस्वीर के सामने एक छोटी-सी पीतल की थाली में उन फूलों को धीरे से सजा दिया। 

फूलों की वह सफ़ेद चादर अब केवल आँगन की मिट्टी पर नहीं, बल्कि माधव के हृदय में भी बिछी हुई थी। वह जानता था कि प्रिया चली गई है, लेकिन हर सुबह हरसिंगार का यह बलिदान उसे बताता है कि प्रेम और सुगंध कभी समाप्त नहीं होते, वे बस अपना स्वरूप बदल लेते हैं क्षणभंगुरता से शाश्वत स्मृति में। 

माधव ने गहरी साँस ली। उस सुगंध ने उसके अकेलेपन को क्षण भर के लिए भर दिया। हरसिंगार ने उसे सिखाया था कि जीवन का सार ही है समर्पण। और जब तक यह वृक्ष आँगन में खड़ा है और हर सुबह अपने फूल समर्पित करता है, तब तक प्रिया की यादें उसके जीवन में ऐसे ही मधुरता बिखेरती रहेंगी। उस दिन से माधव को हरसिंगार का गिरना, विरह की वेदना नहीं, बल्कि पुनर्मिलन की मधुर प्रतीक्षा लगने लगा। 

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