गर इंसान नहीं माना तो
जीवन के अब लाले हैं।
शहर बने कंक्रीटी जंगल
धुँआ धूल धुसरित तन है
सभी वृक्ष मुरझाये लगते
सूने उदास उपवन हैं।
नदियों में कालोनी कटतीं
गाँव द्वार पर ताले हैं।
सीमाओं पर नाग खड़े हैं
अपना विषभर फन लेकर।
राजनीति की भ्रष्ट नीति में
वोट खरीदें धन देकर।
घर अपने ही ढहा रहे
अपने ही अंदरवाले हैं।
हिम शिखरों पर धूल जमी है
सूरज अँधियारे में सोता।
आम नागरिक सोच रहा है
कोई तो अपना होता।
सच्चाई का ओढ़ लबादा
ये सब जुमलेवाले हैं।