ओंठ तुम्हारे क्यों काँपे हैं
पलक आज क्यों नीची है।
समय उड़ रहा पंछी जैसा
हाथ नहीं क्यों आता है।
दबे पाँव क्यों मन में मेरे
रूप तेरा घुस जाता है।
पाकर प्रिय स्पर्श तुम्हारा
आँखे मैंने मींची हैं।
ज्योति शिखा सी मन में जलती
पल पल जीवन देती हो।
क्षण भर को स्तब्ध चकित कर
फिर वापिस चल देती हो।
नेह बीज नव अंकुर फूटे
प्रेम की कलियाँ सींची हैं।
छंद नाद जैसा स्वर तेरा
स्वप्नातीत पुनीत रूप है।
प्रीत तुम्हारी निश्छल अविरल
विभा भोर भरी धूप है।
जैसे शिशु का दुलार हो
यादें मन में यूँ भींची हैं।