एक पेड़ का अंतिम वचन

01-10-2020

एक पेड़ का अंतिम वचन

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 166, अक्टूबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

कल एक पेड़ से
मुलाक़ात हो गई।
चलते चलते आँखों में
कुछ बात हो गई।
 
बोला पेड़ लिखते हो
जन संवेदनाओं को।
उकेरते हो दर्द भरी
जन भावनाओं को।
 
क्या मेरी सूनी संवेदनाओं
को छू सकोगे?
क्या मेरी कोरी भावनाओं
को जी सकोगे?
 
मैंने कहा कोशिश करूँगा
कि मैं तुम्हें पढ़ सकूँ।
तुम्हारी भावनाओं को
शब्दों में गढ़ सकूँ।
 
अगर लिखना ज़रूरी है
तो मेरी संवेदनायें लिखना तुम।
अगर लिखना ज़रूरी है तो
मेरी दशा पर बिलखना तुम।
 
क्यों नहीं रुक कर मेरे सूखे
गले को तर करते हो?
क्यों नोंच कर मेरी साँसें
ईश्वर को प्रसन्न करते हो?
 
क्यों मेरे बच्चों के शवों पर
धर्म जगाते हो?
क्यों हम पेड़ों के शरीरों
पर यज्ञ करवाते हो?
 
क्यों तुम्हारे लोग मेरी
टहनियाँ मोड़ देते हैं?
क्यों तुम्हारे सामने मेरे बच्चे
दम तोड़ देते हैं?
 
हज़ारों लीटर पानी नालियों में
तुम क्यों बहाते हो?
मेरे बच्चों को बूँद बूँद
के लिए क्यों तरसाते हो?
 
क्या तुम सामाजिक सरोकारों
से जुदा हो?
क्या तुम इस प्रदूषित धरती
के ख़ुदा हो?
 
क्या तुम्हारी क़लम हत्याओं
को ही लिखती है?
क्या तुम्हारी लेखनी क्षणिक
रोमांच पर ही बिकती है?
 
अगर तुम सामाजिक
सरोकारों से आबद्ध हो।
अगर तुम पर्यावरण रक्षण
के लिए प्रतिबद्ध हो।
 
लेखनी को चरितार्थ करने
की कोशिश करो तुम।
पर्यावरण का संकट
अर्जुन बन हरो तुम।
 
कोशिश करो कि कोई
पौधा न मर जाए।
कोशिश करो कि कोई
पेड़ न कट पाये।
 
कोशिश करो कि सारी
नदियाँ शुद्ध हों।
कोशिश करो कि अब
न कोई युद्ध हो।
 
कोशिश करो कि कोई
भूखा न सो पाये।
कोशिश करो कि कोई
न अबला लुट पाये।
 
हो सके तो लिखना कि
नदियाँ रो रहीं हैं।
हो सके तो लिखना कि
सदियाँ सो रही हैं।
 
हो सके तो लिखना कि
जंगल कट रहे हैं।
हो सके तो लिखना कि
रिश्ते बँट रहें हैं।
  
लिख सको तो लिखना
हवा ज़हरीली हो रही है।
लिख सको तो लिखना
मौत जीवन पी रही है।
 
हिम्मत से लिखना कि
माँ नर्मदा के आँसू भरे हैं।
हिम्मत से लिखना कि
सब अंदर से डरे हैं।
  
लिख सको तो लिखना कि
शहर की नदी मर रही है।
लिख सको तो लिखना कि
वो तुम्हें याद कर रही है।
 
क्या लिख सकोगे तुम
प्यासी गौरैया की गाथा को?
क्या लिख सकोगे तुम
मरती गाय की भाषा को?
 
लिख सको तो लिखना कि
थाली में कितना ज़हर है।
लिख सको तो लिखना कि
ये अजनबी होता शहर है।
 
शिक्षक हो इसलिए लिखना
की शिक्षा सड़ रही है।
नौकरियों की जगह
बेरोज़गारी बढ़ रही है।
 
शिक्षक हो इसलिए लिखना
कि नैतिक मूल्य खो चुके हैं।
शिक्षक हो इसलिए लिखना
कि शिक्षक सब सो चुके हैं।
 
मैं आवाक था उस पेड़ की
बातों को सुनकर।
मैं हैरान था उस पेड़ के
इल्ज़ामों को गुन कर।
 
क्या ये दुनिया कभी
मानवता युक्त होगी?
क्या ये धरती कभी
प्रदूषण मुक्त होगी?
 
मेरे मरने का मुझ को
कोई ग़म नहीं है।
मेरी सूखती शाखाओं में
अब दम नहीं है।
 
याद रखना तुम्हारी साँसें
मेरी ज़िंदगी पर निर्भर हैं।
मेरे बिना तुम्हारी
ज़िंदगानी दूभर है।
 
हमारी मौत का पैग़ाम
पेड़ का ये कथन है।
एक मरते पेड़ का
यह अंतिम वचन है।

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