अनकहा सौंदर्य

15-12-2025

अनकहा सौंदर्य

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 290, दिसंबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

उदासी जब तुम पर उतर आती है
तो लगता है मानो किसी शांत झील पर
धूप अचानक थम गई हो
एक निश्चल उजाला
जो चमकता नहीं, 
पर भीतर तक उतरकर
मन को ठंडा कर देता है। 
 
तुम्हारे चेहरे पर उस क्षण
एक कोमल धुँध तैरती है, 
जैसे किसी गुलाबी संसार की भीड़ से
अलग खड़ा
एक मौन खंडहर
जहाँ चुप्पी भी
अपने भीतर संगीत का आभास रखती है। 
 
तुम आँखों को ढँकती नहीं, 
सिर्फ़ थोड़ा झुका लेती हो, 
और वही झुकाव
एक डूबते दिन की आख़िरी आभा-सा
तुम्हारे गालों पर उतर आता है। 
उस आभा में
दुख का रंग नहीं
एक अनिर्वचनीय सौम्यता बहती है
जैसे सूर्यास्त
किसी बादल के आँचल में
धीरे-धीरे पिघल रहा हो। 
 
तुम्हारे बाल
हल्की हवा में बस ज़रा-से काँपते हैं
और उसी झटके में
किसी अनजानी थकान का
सोना टपक पड़ता है
संझा के धुँधलके में
गुमनामी की किरणों-सा। 
 
तुम्हारे होंठ
आधी बात कहकर रुक जाते हैं
जैसे कोई प्यास
अपना नाम भूल गई हो। 
उस अधूरी आकांक्षा में
एक ऐसी सुंदरता छिपी है
जो उजाले में नहीं, 
केवल उस क्षण दिखाई देती है
जब मन भीतर कुछ खोज रहा होता है
जिसे शब्दों में नहीं पकड़ा जा सकता। 
 
और तुम्हारी आँखों के कोरों में
जो घनी नमी ठहरी रहती है
वह किसी तूफ़ान की आहट नहीं, 
बल्कि दो पक्षियों का ठहराव है
जो थके हुए पंखों को
तुम्हारी नयनों की शान्ति में
कुछ पल रखकर
फिर उड़ जाने को तैयार हो रहे हों। 
 
उदासी में तुम
किसी दुखद कथा
नायिका नहीं लगती, 
बल्कि उस चाँदनी की तरह
जो टूटे हुए मकानों पर भी
अपना प्रेम बरसा देती है
बिना शोर
बिना आग्रह
सिर्फ़ अपने होने की नमी से। 
 
तुम सुंदर तब नहीं होती
जब मुस्कुराती हो
तब भी होती हो
पर उस क्षण
जब तुम चुप हो जाती हो
और दुनिया की ओर नहीं
अपने भीतर की ओर देखती हो
वही पल
तुम्हें सबसे अधिक उज्ज्वल
सबसे अधिक कोमल
और सबसे अधिक
मानुष बनाता है। 
 
उसी क्षण
तुम्हारी उदासी
एक प्रकाश की तरह
धीरे-धीरे जल उठती है
और तुम्हें देखना
एक अनकहे सौंदर्य का
अनुभव बन जाता है। 

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