रिश्ते (डॉ. सुशील कुमार शर्मा)

15-11-2020

रिश्ते (डॉ. सुशील कुमार शर्मा)

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 169, नवम्बर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

अस्पताल में मोहन ने मास्टर जी के बिस्तर के नीचे अपनी चद्दर बिछायी और बैठ गया।

"मोहन तुम सो जाओ जब ज़रूरत होगी बुला लूँगा," मास्टरजी ने कमजोर आवाज़ में कहा।

"आप चिंता न करें मुझे नींद नहीं आ रही है," मोहन ने मास्टर जी के माथे पर हाथ रखते हुए कहा।

मास्टर जी की आँखों में आँसू थे। बड़ा बेटा जर्मनी में, छोटा बेटा अमेरिका में करोड़ों के आसामी और यहाँ मास्टरजी अकेले अस्पताल में असहाय किरायेदार के साथ।

मोहन की नौकरी छूट गयी थी दो महीने से किराया नहीं दिया था। मास्टर जी ने उससे कहा था –

"मोहन जब तक तुम्हे कोई काम नहीं मिल जाता तब तक तुम घर में रह सकते हो।"

मोहन ने कृतज्ञता से मास्टर जी के पैर छुए तब से क़रीब एक साल तक मोहन बग़ैर किराये के ही मास्टर जी के साथ रह रहा है।

कल रात जब अचानक मास्टर जी की तबियत ख़राब हुई तो मास्टर जी की पत्नी दौड़ती हुई मोहन के पास पहुँची थीं।

"मोहन बेटा जल्दी चलो इनकी तबियत बहुत ख़राब है," मास्टर जी की पत्नी ने रोते हुए कहा।

"आप घबराइए मत; मैं हूँ न चिंता की कोई बात नहीं है," मोहन ने मास्टर जी की कार निकाली और आधी-रात को वो भोपाल के लिए निकल गए।

तभी कमरे में डॉक्टर ने प्रवेश किया मोहन ने पूछा, "डॉक्टर साहब अब इनकी तबियत कैसी है?"

"बहुत बेहतर अगर दो घण्टे लेट हो जाते तो बचाना मुश्किल था," डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा।

तभी दोनों बेटों के फोन आये। 

"पिता जी पैसों की चिंता मत करना हम पैसे भेज रहे हैं।"

"बेटा मुझे पैसों की ज़रूरत नहीं। बेटे की जरूरत थी जो मेरे पास है," मास्टर जी ने मुस्कुराते हुए मोहन को देखा और फोन रख दिया।

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