गुरु दक्षिणा का नया संस्करण—व्हाट्सएप वाला प्रणाम!
डॉ. सुशील कुमार शर्मा
(वर्तमान विद्यार्थी शिक्षक सम्बन्धों पर एक तीखा व्यंग्य लेख)
गुरु-शिष्य परंपरा कभी वह दीप थी, जिससे ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित होती थी। अब वह दीपक मोबाइल की बैटरी इंडिकेटर में बदल गया है—चार्ज होते ही प्रज्वलित, ख़त्म होते ही अंधकार! विद्यार्थी अब गुरु को श्रद्धा नहीं, Wi-Fi पासवर्ड के रूप में पहचानते हैं—जब ज़रूरत हो, जोड़ लो, वरना अनदेखा।
आज मैं एक ऐसे विषय पर कुछ कटु सत्य कहने आया हूँ, जिसे सुनकर शायद कुछ चेहरे सिकुड़ें, कुछ दृष्टियाँ झुकें और कुछ ठहाके भी लगें—पर जो सत्य है, वह कभी-कभी व्यंग्य में ही सबसे साफ़ दिखता है।
हमारे देश में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा गया—लेकिन आजकल विद्यार्थियों की नज़र में गुरु महज़ एक PDF vending machine बनकर रह गए हैं। श्रद्धा अब “गूगल ड्राइव” में अपलोड होती है और ‘प्रणाम’ सिर्फ़ व्हाट्सएप स्टेटस की एक इमोजी में सिमट गया है।
कभी विद्यार्थी शिक्षक की आँखों में देख कर प्रेरणा लेते थे, आज वो उन्हीं आँखों में मोबाइल कैमरा ढूँढ़ते हैं— “रील बना लूँ सर, एक बार और बोल दीजिए . . ."
शिक्षक अब प्रेरणा देने वाले आचार्य नहीं रहे, बल्कि “student-friendly influencer” बनना सीख रहे हैं—जो “engagement metrics” से डरता है, न कि विद्यार्थियों की आँखों से।
मित्रो, सोचिए, क्या आज की पीढ़ी उस काल की कल्पना कर सकती है, जब विद्यार्थी अपने गुरु के पैर धोकर जल पीते थे?
अब तो पैर धोना छोड़िए, छात्र शिक्षक को “bro” कहकर पुकारते हैं और उन्हें “लाइक” के लिए रिक्वेस्ट भेजते हैं।
कभी शिक्षक विद्यार्थियों को “पढ़ाते” थे, अब “मनाते” हैं।
“गुरु-शिष्य सम्बन्ध अब बोर्ड पर नहीं, की-बोर्ड पर बनते हैं।
और सम्मान–वह अब स्क्रीनशॉट में मिलता है, स्मृति में नहीं।”
शिक्षा केवल जानकारी नहीं देती—वह संस्कार देती है। और वह संस्कार तभी आएगा जब शिक्षक को केवल “क्लास टाइम” तक नहीं, मन के मंदिर में स्थान मिलेगा।
विद्यालयों में अब “गुरुजी नमस्ते!” के स्थान पर “क्या सर! नोट्स कब डालोगे ग्रुप में?” गूँजता है। अनुशासन अब क्लासरूम के बाहर जूते की तरह रखा जाता है—जरूरत पड़े तो पहनो, वरना टाँग दो दीवार पर।
अनुशासन? वो अब स्कूल यूनिफ़ॉर्म की तरह है—घर पहुँचते ही उतार फेंका जाता है।
प्रार्थना सभा में ‘वन्दे मातरम्’ बोलने वाला बच्चा अब रील में ‘दिल तो बच्चा है जी’ पर डांस करता है।
शिक्षक डाँट दें तो अगले दिन अभिभावक शिकायत लेकर पहुँचते हैं—“सर, मेरे बेटे की सेल्फ़-रिस्पेक्ट को हर्ट हुआ है।”
विद्यार्थी पाठशाला को “फ़न ज़ोन” समझते हैं और शिक्षक? वह अब परीक्षक नहीं, कंटेंट क्रिएटर हैं–कमेंट्स में रिव्यू और इंस्टाग्राम पर फ़ॉलो की उम्मीद रखने वाले बेचारे प्रोफ़ेशनल्स।
कभी विद्यार्थी शिक्षक के साए में बैठते थे, अब शिक्षक CCTV कैमरे की नज़र में बैठे हैं—कहीं ग़लती से डाँट न पड़ जाए तो अभिभावक सभा में केस न बन जाए! कभी विद्यार्थी गुरु के चरणों में बैठते थे, अब “बेंच शेयर” करना भी उनका अपमान है।
और शिक्षक? वे अब “वाइब्रेंट, एंगेजिंग और लर्नर सेंट्रिक” बनना चाहते हैं, पर दिल से टूटे हुए और चॉक से डरते हुए—क्योंकि हर शब्द अब मोबाइल में रिकॉर्ड होता है और हर डाँट का जवाब क़ानून में लिखा होता है।
गुरुकुल अब ऐप्स में बंद हैं,
कक्षा अब क्लाउड में उड़ती है।
जहाँ विद्यार्थी की उँगली में है ताक़त,
और शिक्षक की गरिमा–रीलों में सिसकती है।
शिक्षा का अर्थ बदल गया है—अब यह ज्ञान नहीं, ग्रेड की दौड़ है। और शिक्षक? वे अब ‘ड्राइवर’ हैं जो गूगल मैप के निर्देशों पर विद्यार्थियों को ‘करियर’ की मंज़िल तक ले जा रहे हैं—बिना पूछे कि वो रास्ता सही भी है या नहीं।
मैं यह नहीं कहता कि सभी विद्यार्थी अनुशासनहीन हैं, या हर शिक्षक पीड़ित है। पर यह बदलती हवा— यह “फ़न के नाम पर फ़ालतू” की संस्कृति—अगर समय रहते नहीं रोकी गई, तो शिक्षा केवल एक “फ़ॉर्मेलिटी” बनकर रह जाएगी।
गुरु और शिष्य के बीच की खाई अब एक स्क्रीन जितनी रह गई है—स्पर्श विहीन, संवाद रहित, और भावना शून्य।
आइए, गुरु को फिर से श्रद्धा का स्थान दें—और विद्यार्थी को फिर से जिज्ञासु बनाएँ, उपहास नहीं।
इस व्यंग्य का उद्देश्य केवल हँसाना नहीं, जगाना है।
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