भाग्य अभिलेख

01-06-2024

भाग्य अभिलेख

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 254, जून प्रथम, 2024 में प्रकाशित)


(कर्ण-कृष्ण व कर्ण-कुंती संवाद) 
(काव्य नाटिका) 

सुशील शर्मा

प्रस्तावना: यह काव्य नाटिका महाभारत के उस प्रसंग को प्रसारित करता है जिसमें कृष्ण कर्ण को उसके जन्म का रहस्य बता कर उसे पांडवों के पक्ष में युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं किन्तु कर्ण व्यथित होकर दुर्योधन के पक्ष में ही युद्ध करने का प्रण लेते हैं। कर्ण को मनाने का अंतिम प्रयास कुंती द्वारा किया जाता है। किन्तु कर्ण अपने प्रण पर अटल रहते हैं। कर्ण कुंती को उनके बाक़ी चार पुत्रों के लिए अभयदान देते अर्जुन से युद्ध के लिए कटिबद्ध होते हैं। 

पात्र: कर्ण, कृष्ण, कुंती, विदुर एवम दासी

 

प्रथम दृश्य

 

(कृष्ण दुर्योधन की सभा में शान्ति दूत बनकर जाते हैं और मात्र पाँच गाँव की माँग करते हैं। उस पर भी वह मना कर देता है और युद्ध के लिए अडिग रहता है। 

उसके बाद कृष्ण अपना विराट स्वरूप दिखाते हैं और युद्ध के लिए ललकार कर आते हैं। वहाँ से वापसी के मार्ग में उन्हें कर्ण दिखाई देता है। तत्पश्चात् कृष्ण उसे अपने रथ में बिठा लेेते हैं) 

कर्ण:

अहो भाग्य माधव मिले, 
आप जगत आधार। 
अभिनंदन प्रभु आपका, 
हृदय भरा आभार। 
 
कृष्ण:
(चिरपरिचित मुस्कान के साथ)
  
कुशल क्षेम हूँ पूछता, 
कैसे हो राधेय। 
आओ रथ पर हम चलें, 
पथ हैं सब अज्ञेय। 
 
कर्ण:
 
कृपा आपकी है प्रभु, 
जीवन कुशल प्रवीण। 
संघर्षों के पथ मिले, 
अनुभव मिले नवीन। 
 
कृष्ण:
 
नीति धर्म अरु सत्य के, 
ज्ञाता हो राधेय। 
हृदयग्राह्य हितकर प्रबल, 
सत्बुद्धि संज्ञेय। 
 
तत्वज्ञान संयम नियम, 
वेदज्ञान संज्ञान। 
धर्म कर्म नित नीति के, 
परिनिष्ठित विद्वान। 
 
अंगराज मैं चाहता, 
सब का हो कल्याण। 
युद्ध की भेरी न बजे, 
बचें सभी के प्राण। 
 
कर्ण:
 
यह निर्णय मेरा नहीं, 
हे माधव हो ज्ञात। 
दुर्योधन, धृतराष्ट्र का, 
है यह निर्णय तात। 
 
कृष्ण:
 
कितना समझाया था मैंने
पर बात नहीं मानी मेरी। 
उस दुर्योधन दुर्बुद्धि ने
बजवा ही दी ये रण भेरी। 
 
मैंने माँगे थे पाँच गाँव
दुर्योधन दे सकता था
यह शंतिदूत का अवलंबन
अपने माथे ले सकता था। 
 
कुरुक्षेत्र रक्त लोहित होगा
नरमुंड कटेंगे शस्त्रों से। 
विधवाओं की चीख उठेंगी
हृदय बिंधे जब अस्त्रों से। 
 
दुर्योधन करता रहे, 
यह जघन्य अन्याय। 
राधानंदन चुप रहे, 
क्या यही धर्म पर्याय। 
 
दुर्योधन को तेरे बल पर
अटल अमित विश्वास है। 
तेरे शौर्य पराक्रम के बल
समर विजय की आस है। 
 
कर्ण:
 
माधव क्यों तुम चुप रहते थे
जब मेरा परिहास हुआ। 
आज पांडवों की पीड़ा का
क्यों मन में आभास हुआ। 
 
मैं नहीं जानता क्या होगा
किस किस के जीवन जायेंगे। 
पर यह निश्चित है वनवारी
मुझे दुर्योधन संग पाएँगे। 
 
कृष्ण:
 
कैसे कैसे खेल खिलाता
देखो भाग्य विधाता है।
जिसका जो प्रारब्ध लिखा है
वो उसको बस पाता है।

 
 कर्ण:
 

सही कहा हे माधव तुमने
शायद मेरा भाग्य यही।
कुंतीनंदन से रण जीतूँ
अर्जुन का प्रारब्ध यही।

 
कृष्ण:
 
रण में जो भी कुछ होगा
वह भविष्य के गर्त छुपा है
जो होना है वो तो होगा
किसके रोके कौन रुका है। 
 
राधानंदन मुझसे सुनलो
अपने होने की सच्चाई। 
वह घटना अति विशिष्ट है
नहीं आजतक तुम्हें बताई। 
 
तुम कुंती के ज्येष्ठ पुत्र हो
नहीं कर्ण हो तुम राधेय। 
राजपुत्र कुरु श्रेष्ठ वंश के
पाण्डु ज्येष्ठ पुत्र कौन्तेय।
 
सत्य यही है कर्ण सुनो तुम
तुम कुंती के हो कानीन। 
सूर्य मंत्र के जप प्रभाव से
कुंती गर्भ हुए आसीन। 
 
कर्ण:
 
नहीं नहीं कह दो माधव यह
कथन तुम्हारा झूठा है। 
मैं ही मिला हूँ मूर्ख बनाने
यह परिहास अनूठा है। 
 
कृष्ण:
 
नहीं असत्य मैं तुमसे कहता
पांडव के तुम ज्येष्ठ हो। 
सूर्य कवच कुंडल संग जन्मे
धीर वीर तुम श्रेष्ठ हो। 

 

(कृष्ण उसके जन्म की पूरी कहानी कर्ण को बताते हैं। कृष्ण कहते हैं यही तुम्हारा सत्य है अंगराज कि तुम कौन्तेय हो। ऋषि दुर्वासा के वरदान से मन्त्र द्वारा सूर्य देव की प्रार्थना से तुम कुंती के गर्भ में उत्पन्न हुए। तुम कुंती के कानीन—कन्या अवस्था में उत्पन्न पुत्र—हो अंगराज। सूर्य के कवच और कुंडल जन्म से ही तुम्हारे साथ उत्पन्न हुए हैं जो मेरे कथन को सत्य प्रमाणित करते हैं कर्ण। तुम ज्येष्ठ पाण्डव हो। कृष्ण की बात सुनकर कर्ण स्तब्ध रह जाते हैं) 

 

कर्ण:
 
क्यों मिथ्यावादन करते हो
सूतपुत्र मैं राधानंदन। 
सही बात मुझको बतलाओ
हे माधव चरणों में वंदन। 
 
मैं अधिरथ का पुत्र कर्ण हूँ
राधा मेरी माता है। 
बस इतना ही सत्य समझता
न मेरा कोई भ्राता है। 
 
कृष्ण:
 
यही तुम्हारा सत्य कर्ण है
तुम मानो या न मानो। 
तुम कौन्तेय ज्येष्ठ सुत प्यारे
अपने को तुम पहचानो। 
 
तुम पाण्डु के ज्येष्ठ पुत्र हो
अतः राज्य के तुम अधिकारी। 
चलो आज पांडव ख़ेमे में
राज्याभिषेक की कर तैयारी। 
 
मस्तक पर सम्राट मुकुट हो
पांडव चरण पखारेंगे। 
धर्मराज युवराज तुम्हारे
आरती सभी उतारेंगे। 
 
श्वेत चंवर युधिष्ठिर झलते
पार्थ तुम्हारे पहरेदार। 
भीम छत्र ले पीछे चलते
नकुल अनुज सह अनुचर सार। 
 
अभिमन्यु सेवा में होगा
पाँचाली सुत पाँव धुलेंगे। 
चलो कर्ण पांडव ख़ेमे में
सारे सुख तुम्हें वहाँ मिलेंगे। 
 
सुभग! दृश्य कितना स्पर्शी
जब सब इस सच को जानेगें।
कुंती का आनंद अमित हो
सब कर्ण को पांडव मानेगें।
 
सूत, मगध द्रविड़, कुंतल नित
यशोगान करते सब लोग। 
अपने सब भ्राताओं के संग
तुम भोगोगे स्वर्ग के भोग।
 
एक ओर लोहित की नदियाँ
एक ओर तुम हो सम्राट। 
क्या तुमको अब चाहिए—
प्रिय तुम चुनलो कर्ण विराट। 

 

(कृष्ण की बातें सुनकर और अपना सत्य जानकार कर्ण का मन पीड़ा और कटुता से भर जाता है) 

 

कर्ण:
 
सुनकर सत्य कठोर कृपण यह
मन अत्यंत अधीर हुआ। 
हे प्रारब्ध भाग्य हे मेरे
पीड़ा ने अब हृदय छुआ। 
 
सत्य भले हों ये सब बातें
पर मुझको स्वीकार नहीं। 
कर्ण मात्र राधा का सुत है
कुंती का अधिकार नहीं। 
 
दस महीनों तक गर्भ में रख कर
जिसको रुधिर पिलाया था। 
उसे जन्मते ही माता ने
गंगा धार बहाया था। 
 
क्यों कृष्ण नहीं चाहो सुनना।
क्यों नहीं आप चाहें गुनना।
क्या यही मातृ का धर्म हुआ
जो शिशु का चाहे मरना। 
 
क्या नहीं सर्पणी वह माता। 
जिससे शिशु न पाला जाता। 
क्या हृदय था या पाषाण परम
क्या कोई प्राण बहा पाता। 
 
सुत से समाज क्यों बड़ा हुआ। 
निज वंश मान क्यों मढ़ा हुआ। 
निज सुत को मृत्यु दंश दिला
क्यों भय कलंक का चढ़ा हुआ। 
 
क्यों मेरा जन्म छुपाया था
क्यों मन्त्र से मुझको पाया था। 
क्या यही मातृ का धर्म हुआ
जो गंगा धार बहाया था। 
 
मैंने जो कटु अपमान सहे
उनकी पीड़ा अब कौन कहे
क्यों था अभिशाप जन्म मेरा
क्यों अश्रु आँख में भरे रहे। 
 
बस कुंती तो निष्पाप रही। 
पीड़ा मैंने चुपचाप सही। 
माधव अब तक क्यों मौन रहे
क्यों आज आपने बात कही। 
 
जो जल से निकाल कर लाया था
वो अधिरथ मेरा साया। 
जिसने मुझको यह नाम दिया
मेरे सर उसकी छाया। 
 
मैं शिशु नन्हा सा त्यागा था
मैं मातृहीन अभागा था
वो राधा मेरी माता है
नेह में जिसने पागा था। 
 
सुत रूप में मुझको पाया था। 
स्तन से दूध पिलाया था। 
वो राधा मेरी माता है
जिसने मल-मूत्र उठाया था। 
 
मैं जाति-गोत्र से हीन हुआ
मैं सूत वंश अधीन हुआ
क्यों तब भी कुंती मौन रही
जब सबके सम्मुख दीन हुआ। 
 
जब सूत-पुत्र जग कहता था
जब दर्द हृदय में बहता था
क्यों तब भी कुंती मौन रही
जब व्यंगबाण मैं सहता था। 
 
क्या पृथा हृदय भी पत्थर था
क्या नहीं कोई भी उत्तर था
जब शूद्र मुझे सब कहते थे
तब मौन पृथा प्रतिउत्तर था।
 
क्या सुत से बढ़कर वंशमान
देकर निज शिशु को मृत्युदान
अब क्यों मुझको अपनाती वह
क्यों कुंती गाती अब कर्ण गान।
 
मैं बस राधा का पुत्र कर्ण
मैं हूँ अधिरथ का वंश पर्ण
मुझे सूतपुत्र ही रहना है
मैं नहीं चाहता पृथा वर्ण। 
 
जिस भय से मुझको था त्यागा। 
जो भय मन में तब था जागा। 
क्या पाप पुण्य में बदल गए
क्यों अब पृथा ने कर्ण माँगा। 
 
कृष्ण:
 
यह सब सच है हे पृथा पुत्र। 
जग का ऐसा ही है चरित्र। 
प्रारब्धों की अनुसंशा में
अनुरक्त कर्म सबके हैं मित्र। 
 
भूतकाल था चला गया
भाग्य तुम्हारा छला गया
क्यों भूत पे अब ये बातें हों
जो वर्तमान से मिला गया। 
 
आज सत्य स्वयं तुमने जाना।
है अपने स्वरूप को पहचाना।
तुम कुंती के ज्येष्ठ कान्त
राज्य तुम्हें अब है पाना। 
 
तज दुर्योधन का साथ सखे। 
लो पांडव अपने हाथ सखे। 
बन कुरुवंशी सम्राट अभी
मुकुट रखो तुम माथ सखे। 
 
कर्ण:
 
हे कृष्ण नहीं यह हो सकता। 
मैं राधा को नहीं खो सकता। 
राज लोभ निज मन लेकर
पाप नहीं मैं ढो सकता। 
  
जब सूतपुत्र सब कहते थे
अपमान हृदय में बहते थे
तब दुर्योधन का संग मिला 
जब कष्ट हृदय में रहते थे। 
 
अपमानों के गहन कष्ट में
दुर्योधन बस संग रहा। 
जब सबने दूरी बाँधी थी
उसने मेरा हाथ गहा। 
 
सूत पुत्र कह कह कर मुझको
जब पांडव गाली देते थे। 
तब दुर्योधन संगी था मेरा
आप सभी चुप रहते थे। 
 
अंग-राज का मुकुट सौंप कर
मेरा मान बढ़ाया था। 
भरी सभा में दुर्योधन ने
मुझको गले लगाया था। 
 
रोम रोम ऋण में डूबा है
दुर्योधन अहसानों का। 
कैसे उसका क़र्ज़ चुकाऊँ
उसके उन सम्मानों का। 
 
सच है यह मेरे ही बल पर
उसने युद्ध विकल्प चुना
मेरी शक्ति सामर्थ्यों में
व्यूह युद्ध का गया बुना। 
 
यदि मैं उसको अब छोड़ूँगा
तो पापी कहलाऊँगा। 
मित्र घात के उन घावों को
कैसे मैं सहलाऊँगा। 
 
चाहे पद सम्राट मिले या
चाहे स्वर्ग वितान मिले। 
पर मित्र नहीं मैं छोड़ूँगा
चाहे सब संसार जले। 
 
मैं कर्ण, प्रतिज्ञा करता हूँ
पद के पीछे नहीं भागूँगा। 
चाहे रण में मर जाऊँ मैं
पर दुर्योधन न त्यागूँगा। 
 
है प्रण यह कर्ण विराट अटल
मैं वचन आज ये धारूँगा। 
रण में या निज प्राण तजूँ
या अर्जुन को मैं मारूँगा। 
 
कृष्ण:
 
यह निश्चित है अब अंगराज। 
जब बाजेगा यह युद्ध साज़। 
नहीं ग्राह्य तुम्हें मेरा सुझाव
हो मृत्यु निकट तुम छोड़ राज। 
 
वह अर्जुन का रथ कांतिमान। 
रथ में ध्वज स्थित हनुमान। 
मैं स्वयं ईश सारथि उसका
अर्जुन के शर वह कीर्तिवान। 
 
एन्द्र, अग्नि वायव्य अस्त्र। 
वो पृथापुत्र के दिव्य शस्त्र। 
जब रण में काल पुकारेगा
तब प्राण भगे तन छोड़ वस्त्र। 
 
दुर्योधन यह रण हारेगा। 
पांडव विजय तो निश्चित है। 
समर भयंकर यदि होगा
वंश का नाश सुनिश्चित है। 
 
हे कर्ण बात मेरी मानो
यह युद्ध अभी टल सकता है
यदि तुम चाहो राधानंदन
राज्य तुम्हें मिल सकता है। 
 
कर्ण:
 
नहीं राज्य का मोह मुझे है
नहीं वंश अभिमान करूँ। 
मित्र धर्म बस आज निबाहूँ
दुर्योधन का मान धरूँ। 
 
मित्र घात आरोप लिए
नहीं जीवित रह पाऊँगा। 
यश, दान मान, सम्मान सभी
खो कर मैं कैसे जाऊँगा। 
 
जिसने मुझको यह मान दिया
मेरे समक्ष वह हारेगा। 
घाती मित्र का कह-कह कर
यह जग मुझको धिक्कारेगा। 
 
जब निज माता ने ही मुझको
मृत्युदंश दे छोड़ दिया। 
निज वंशमान के कारण ही
संबंधों को तोड़ दिया। 
 
क्यों आज वही माता मुझको
आँचल के मध्य बुलाती है। 
क्यों पुत्र नेह मन आज धरे
जो मृत्यु नींद सुलाती है। 
 
क्यों बनूँ जेष्ठ सुत कुंती का मैं
क्यों वंश मुकुट धरूँ मस्तक। 
क्या जग मुझको स्वीकार करे
जो सूतपुत्र कहता अबतक। 
 

कुंती बस मेरी जननी है
पर राधा मेरी प्राण है।
उसके ही चरणों में माधव
बस मेरा कल्याण है।
  
कर्ण का परिचय कर्ण स्वयं है
पुरषार्थ वंश बस मेरा है। 
कुल-जाति नहीं कोई मेरी
बस संघर्षों का घेरा है। 
 
बस एक लालसा है मन में
द्वन्द्व समर अर्जुन से हो। 
या तो उसको रण में मैं मारूँ
या अलग कर्ण सिर तन से हो। 
 
या तो कर्ण प्राण त्यागेगा
या फिर पार्थ मरण होगा। 
चाहे जो परिणित हो रण में
संग्राम महा भीषण होगा। 
 
बस एक विनय यदुनंदन है
यह बात गुप्त ही रहने दें। 
ये जन्मकथा के घाव प्रभु
कर्ण को ही बस सहने दें। 
 
यदि धर्मराज को पता चला
तो अनर्थ हो जाएगा।
वह त्यागेगा राजमुकुट
हृदय कष्ट वह पायेगा। 
 
देकर मुझको यह राजपाट
पांडव वंचित हो जाएँगे। 
जो उनके अधिकार छिने हैं
वो कैसे वापस पाएँगे। 
 
कैसे अर्जुन समर भूमि में
मेरे सम्मुख आएगा। 
कैसे अपने अग्रज पर वह
निर्मम बाण चलाएगा। 
 
अतः भाग्य के जो लेखे हैं
केशव उनको हो जाने दो
अपने अपने प्रारब्धों को
हम सबको अब पाने दो। 
 
अब चलता हूँ हे मधुसूदन
रण में फिर दर्शन होंगे। 
समरभूमि की दिव्य धरा पर
बाणों के स्पर्शन होंगें। 
 
कृष्ण:
(मन ही मन में)
 
धन्य धन्य हे राधा नंदन
सत्य मित्रता का अवतार। 
ऐसा मित्र अनन्य कहाँ है
तू तो है जीवन उपहार। 

 

(ऐसा कह कर कर्ण कृष्ण को प्रणाम कर रथ से उतर कर चले जाते हैं, कृष्ण बहुत दूर तक कर्ण को जाते हुए निहारते रहते हैं और सोचते हैं कि विधि का विधान अटल है उसे स्वयं ईश्वर भी नहीं बदल सकते) 
 
द्वितीय दृश्य
 
 (कुंती के राजप्रासाद का एक कक्ष, दासी विदुर के आने की सूचना देती है) 

 

दासी:
 
विदुर आपसे मिलना चाहें
द्वार प्रतीक्षारत हैं वह।
क्या आज्ञा रानी है मुझको
खड़े हुए चिंतातुर वह।
 
कुंती:
 
शीघ्र उन्हें अंतःपुर लाओ
कुंती का प्रणाम कहना। 
कोई कष्ट न होने पाए
विदुर तात को हे बहना। 

 

(विदुर आकर कुंती को प्रणाम करते हैं) 

 

कुंती:
 
कैसे अपनी प्रिय भाभी की
याद विदुर को आई है। 
मुखड़े पर क्यों कष्ट की रेखा 
क्या मन चिंता छाई है। 
 
विदुर:
 
भाभी श्री मन बहुत व्यथित है
युद्ध विगुल अब बजना चाहे।
इस कारण मन में है चिंता
मृत्यु साज अब सजना चाहे। 
 
युद्ध रोकने के प्रयास भी
सारे देखो विफल रहे। 
टूट रहीं मर्यादाएँ सब
शत्रु सारे सफल रहे। 
 
पुत्र मोह अब कुरु राजा का
बुद्धि चित्त को भृष्ट करे।
धर्म मर्म नीति को तज कर
अहंकार को तुष्ट करे। 
 
अहंकार बस दुर्योधन ने
युद्ध का अंतिम घोष किया
कर्ण, द्रोण भीष्म के बल ने
उसका मन मदहोश किया। 
 
कर्ण दुशासन शकुनि जयद्रथ
इनकी बुद्धि खोटी है। 
पांडव पक्ष की हानि सोचें
इनकी चमड़ी मोटी है। 
 
भरी सभा में दुर्योधन ने
शान्ति पक्ष ठुकराया है। 
पाँच गाँव माँगे थे हरि ने
पर वह न दे पाया है। 
 
धृतराष्ट्र की भरी सभा में
उसने यह अपराध किया। 
उस कपूत गांधारी सुत ने
हरि बंधन आदेश दिया। 
 
अन्यायों के पथ पर चल कर
कौरव करें निम्न व्यवहार। 
रिश्ते-नाते सब को तज कर
छीने पांडव के अधिकार। 
 
कुंती:
 
विदुर सत्य हैं बात तुम्हारी
राज्य क्षणिक बस नाम का। 
बंधु-बांधवों को जो मारे
ऐसा धन किस काम का। 
 
किन्तु अगर यह युद्ध न होगा
धर्म नष्ट हो जाएगा।
पांडव के अधिकार छिनेंगें
जगत कष्ट नित पायेगा 
 
स्वाभिमान का त्याग करे जो
वो जीवित मर जाएगा। 
अन्यायों पर मौन रहे तो
घोर नरक वह पायेगा। 
  
विदुर:
 
भीष्म पितामह द्रोण धनुर्धर
सभी युद्ध में उतरेंगे। 
दोनों पक्षों के लोहित कण
समर भूमि में बिखरेंगे। 
 
भीष्म नहीं मारेंगे पांडव
द्रोण नहीं अर्जुन मारें। 
युद्ध भले ही भीषण होगा
सेना भले ये संहारें। 
 
भय बस मुझे कर्ण का लगता
दुर्योधन का हितकारी। 
अर्जुन का वह शत्रु विकट है
कर्ण वीर धनुर्धारी। 

 
अतः उपाय करो प्रिय भाभी
कर्ण हमारे साथ हो।
विजय हमारी फिर हो निश्चित
मुकुट धर्म के माथ हो।

 

(कर्ण का नाम सुनकर कुंती व्यथित हो जाती हैं और कर्ण के जन्म से लेकर पूरी कहानी स्मरण कर उनके आँखों में आँसू आ जाते हैं। विदुर आश्वस्त होकर प्रस्थान करते हैं। कुंती मन ही मन बहुत व्यग्र है वह युद्ध के परिणाम को सोच कर काँप जाती है) 

 

कुंती:
 
भाई से भाई समर लड़ें
युद्ध के बादल गगन घने। 
अर्जुन कर्ण सहोदर तन से 
समर में शत्रु आज बने। 
 
चाहे अर्जुन कर्ण को मारे
या अर्जुन का शीश कटे। 
मेरा सुत ही मारा जाए
मुझ कुंती का हृदय फटे। 
 
कौन जगत में ऐसी माता
जो निज सुत का मरण सहे। 
किसको व्यथा बताऊँ मेरी
हृदय की पीड़ा कौन कहे। 
 
अब तक जिससे दूर रही मैं
कैसे उसके सम्मुख जाऊँ। 
शिशु था तब का त्यागा उसको
कैसे उस सुत को मैं पाऊँ। 
 
पर जाऊँगी पास कर्ण के
युद्ध से उसको रोकूँगी। 
अर्जुन कर्ण का युद्ध रोकने
पूरी शक्ति झोकूँगी। 

 

दृश्य तीन
 
(गंगा तट पर कर्ण पूर्वाभिमुख होकर वेदमंत्रों का जाप कर रहे हैं, कुंती उनके पीछे जाकर खड़ी हो जाती हैं और जप समाप्ति की प्रतीक्षा करती हैं। वो कर्ण के तेजस्वी मुख को अलपक वात्सल्य से निहारती हैं। कर्ण जप समाप्त कर जैसे ही मुड़ते हैं राजमाता कुंती को समक्ष पाकर आश्चर्यचकित होते हैं। 

कृष्ण के वचन उनके कानों में गूँजने लगते हैं उनका हृदय विक्षोभ एवम क्रोध से भर जाता है किन्तु कर्ण संयम से राजमाता कुंती को प्रणाम करते हैं।)

 

कर्ण:
 
देवि! मैं अधिरथ पुत्र कर्ण
चरणों में शीश नवाता हूँ। 
पाकर प्रिय सानिध्य पृथा का
धन्य स्वयं को पाता हूँ। 
 
कुंती:
 
शत वर्षों तक जिओ पुत्र तुम
हर सुख तेरे पास हों
बनो कीर्ति समृद्धिशाली
मन में दृढ़-विश्वास हो। 
 
कर्ण:
 
क्यों कष्ट किया माता तुमने
क्या मुझको आदेश है। 
क्यों सूतपुत्र को याद किया
क्या मुझको निर्देश है। 
 
कुंती:
 
नहीं सूत का पुत्र कर्ण तू
तू क्षत्रिय कुरुवंश है। 
तू मेरे लोहित का कण है
तू सूरज का अंश है। 
 
तुम कानीन पृथा के सुत हो
तुमको कुक्षि में था पाला। 
पर कलंक न लगे वंश पर
सोच तुम्हें गंगा में डाला। 
 
किससे कहूँ व्यथा मैं मन की
बड़ी अभागन नारी हूँ। 
जिसने अपने सुत को खोया
मैं वो माँ बेचारी हूँ। 
 
तुम थे शिशु पर मैं क्या करती
मैं क्वाँरी सुकुमार थी। 
नहीं बुद्धि ने काम किया तब 
मैं कुबोध आधार थी। 
 
भले ही मैंने त्यागा तुझको
पर तुझ पर अधिकार है
मैं तेरी जननी हूँ नंदन
तू मेरा आकार है। 
 
ज्येष्ठ पुत्र तू मेरा प्रिय सुत
नहीं है तू राधा का नंदन। 
कौन्तेय तू राजपुत्र है
तू कुंती माथे का चंदन। 
 
जिस भय से त्यागा था तुझको
उस भय का मैं त्याग करूँगी। 
भरी सभा में पुत्र बुलाकर
तुझको अपने अंक भरूँगी। 
 
आजा माँ की गोदी में बेटा
सब बातों को भूल कर
आँचल की छाया में आजा
वत्सल झूला झूल कर। 
 
अग्रज तू अर्जुन का हे सुत  
क्यों तू उससे युद्ध करे।
क्रोध द्वेष की ज्वालाओं से
रिश्तों को अवरुद्ध करे। 
 
कर्ण:
 
धन्य हुआ मैं माता कुंती
सुत स्वरूप स्वीकार किया
इतने वर्षों की पीड़ा को
मन से अंगीकार किया। 
 
क्या मैं उस पीड़ा को भूलूँ
जो तुमने मुझको दी थी। 
मृत्युदंश दे गंगाजल में
हर मेरी ममता ली थी। 
 
पुत्र कुपत्र भले ही होते
ऐसा सब कहते संवेदी।
कुंती बनी कुमाता भय में
पुत्र चढ़ा कर वलि की वेदी। 
 
जिस शिशु को था दूध पिलाना
उसको मृत्यदंश दिया। 
वंश का जो अग्रज भ्राता था
उसको क्यों निर्वंश किया। 
 
एक शिशु जो मृत्यु विवश था
राधा माँ ने पाला था। 
उस अबोध शिशु के मुख में
दूध निवाला डाला था। 
 
तुम कुरुरानी राजवंश की
तुम अर्जुन की माता हो। 
मैं अधिरथ का सूतपुत्र हूँ
तुम श्रेष्ठ वंश अभिजाता हो। 
 
नहीं कर्ण कुंती का सुत है
वह तो बस राधेय है
अपनी माँ के श्री चरणों का
वह अनुचर पाथेय है। 
 
कुंती:
(आँखों में अश्रु भर कर)

नहीं कर्ण तू पुत्र है मेरा
किसकी शपथ आज मैं खाऊँ 
सूर्य अंश तू मेरा सुत है
तुझ पर मैं बलिहारी जाऊँ। 
 
भूल सभी विद्वेष भूत के
अर्जुन को तू गले लगा। 
बन कर के सम्राट राज्य का
अन्यायों को दूर भगा। 
   
राज्य जो दुर्योधन ने छीना
उसको वापस पाना है। 
उस दुर्बुद्धि दुर्योधन को
रण में सबक़ सिखाना है। 
 
कर्ण और अर्जुन की जोड़ी
नहीं किसी की बाध्य है। 
हृदय से दोनों यदि मिल जाओ
विजय कहाँ असाध्य है। 
 
कर्ण:
 
निज बालक को जल में फेंका
मान प्रतिष्ठा की चिंता थी। 
कौन कहेगा यह कुरुमाता
निज सुत की माता हन्ता थी। 
 
गंगा धार बहा कर तुमने
मेरे तन मृत्यु भर दी। 
मुझको अपना पाप समझ कर
कीर्ति नष्ट मेरी कर दी। 
 
जब मैं नन्हा अबोध शिशु
गोद तुम्हारी आया था। 
क्यों न गर्व से सम्मुख सबक़े
तुमने तब अपनाया था। 
 
आपकी कायर कोख से जन्मा हूँ
लज्जा मुझको आती है। 
कर्ण की वह भीरु जननी है
गीत शोक के गाती है। 
 
राधा माँ ने दूध पिला कर
मेरे प्राण बचाये थे। 
अब क्या मैं उस माँ को त्यागूँ
जिसने लाड़ लड़ाये थे। 
 
उस माँ के अधिकारों को
कभी नहीं तुमको दूँगा। 
राधा ही मेरी ममता माँ
कभी तुम्हें न माँ कहूँगा। 
 
तुमने कब सोचा था यह कि
मैं जीवित बच जाऊँगा। 
कीर्ति मान सम्मान यशोगुण
इस जीवन में पाऊँगा। 
 
भरी सभा में पार्थ तुम्हारा
सूतपुत्र मुझसे कहता था। 
तब ममता के होंठ सिले थे
व्यंग्यवाण जब मैं सहता था। 
 
व्यंगबाण जब सबने मारे
तब दुर्योधन साथ था। 
जब सबने मुझको दुत्कारा
कंधे पर वो हाथ था। 
 
भरी सभा में अंग देश का
मुकुट मुझे था पहनाया। 
जब अपमान किया तुम सबने
तब उसने था अपनाया। 
 
मित्र नहीं वो प्राण है मेरा
उसे नहीं मैं त्यागूँगा। 
युद्ध उसी के पक्ष करूँगा
छोड़ उसे न भागूँगा। 
 व्यर्थ प्रलाप करो न देवी
समय को न अब तुम मोड़ो। 
कर्ण नहीं लौटेगा पथ से
ममता के बंधन तोड़ो। 
 
छुपा हुआ है जो अतीत से
अब रहस्य ही रहने दो। 
समय की धारा को मत मोड़ो
अपने पथ पर बहने दो। 
 
मत बाँटो मन की पीड़ा को
कष्ट मुझे यह सहने दो। 
मत दो ममता की यह छाया
तप्त हृदय ही रहने दो। 
 
सबकुछ बता चुके प्रिय केशव
दंश हृदय में धँसा चुके। 
अपनी घी चुपड़ी बातों से
मन को मेरे फँसा चुके। 
 
कहो प्रयोजन अब आने का। 
थाह हृदय की ले पाऊँ। 
चाह हृदय में क्या रखती हो
काश तुम्हें मैं दे पाऊँ। 
 
मुझे पता हैं कष्ट आपके
आप यहाँ पर क्यों आईं। 
हृदय में क्यों है पीर घनेरी
क्यों मुख दुख की परछाईं। 
 
अर्जुन की मृत्यु अंदेशा
पृथा तुम्हारे मन में है
कर्ण पार्थ का समर भयंकर
दृश्य हृदय कानन में है। 
 
पहले यदुनंदन आये थे
कर्ण हृदय बहलाने को। 
फिर अर्जुन के जनक पधारे
कवच हमारा पाने को। 
 
अब कुरुमाता कुंती आईं
आँचल ममता अश्रु भरे। 
दुर्योधन से कर्ण को विलग हो
मन में यह संकल्प धरे। 
 
भले कृष्ण पार्थ को छोड़ें। 
सूर्य भले ही पथ मोड़ें। 
कर्ण कभी न मित्र को त्यागे
चाहें सब रिश्ते तोड़ें। 
 
रोम रोम दुर्योधन का ऋण
रक्त में मेरे बहता है। 
उऋण नहीं हो सकता उससे
अंतस मेरा कहता है। 
 
जब तक तन में प्राण रहेंगे
धृतसुत मुझसे रक्ष्य है। 
उसके हित ही प्राण त्यागना
कर्ण का अंतिम लक्ष्य है। 

कुंती:
 
सच कहा कर्ण जननी तेरी यह
कुत्सा भीरु पापन है।
भाग्य लेख के कुछ पृष्ठों पर
सुत हन्ता माँ डाकन है।
 
हूँ अपराधन सुत मैं तेरी
कैसे पश्चाताप करूँ। 
तेरी पीड़ा कैसे कम हो
दुःख तेरा कैसे मैं हरूँ। 
 
बड़ी अभागन जननी तेरी
कुटिल कपट हत्यारी है। 
निज शिशु को नदिया में फेंका
कुत्सा कुंती नारी है। 
 
किससे कहूँ  व्यथा इस मन की
तुझ से अपना दर्द कहा।
कितनी रातें जग कर काटी
दुःख अमोघ असाध्य सहा। 
 
तू राधा का ही नंदन है
नहीं तुझे लेने आयी। 
बस मन में जो दर्द भरा था
वो तुझसे कहने आयी। 
 
बस मैं इतना कहने आई थी
कर्ण पार्थ का युद्ध न हो
समरभूमि के अंगारों में
भाग्य पृथा का क्रुद्ध न हो
 
अर्जुन अग्रज को मारे या
कर्ण पार्थ को संहारे। 
भाग्य के इन दोनों छोरों पर
बस कुंती ही रण हारे। 
 
बस इतनी सी विनती लेकर
द्वार तुम्हारे आई हूँ
मत निराश तुम मुझको करना
भाग्य की मैं ठुकराई हूँ। 
 
कर्ण:
 
अर्जुन क्षत्रिय महावीर है
क्यों कातर है उसकी माता। 
समरभूमि में प्राण त्यागना
हर क्षत्रिय यह स्वप्न सजाता। 
 
स्वार्थ सिद्धि अपनी तुम लेकर
कर्ण द्वार पर कुरुमाता।  
धर्म दान मय कर्ण द्वार से
कोई नहीं ख़ाली जाता। 
 
कृष्ण पार्थ के कवच बने हैं
क्यों डरती हो तुम माता। 
है अमोघ कर्ण का प्रण भी
कोई न उससे बच पाता। 
 
कौरव पांडव युद्ध नहीं यह
समर पार्थ संग कर्ण है। 
यह होनी तो अटल सत्य है
बाक़ी सभी विवर्ण है। 
 
यह निश्चित है युद्ध ठनेगा
पार्थ कर्ण का रण होगा। 
युद्ध आजतक हुआ न होगा
समर महा भीषण होगा। 
 
चार सुतों का अभयदान है
आज वचन मैं हारूँगा। 
या तो अपने प्राण तजूँगा
या अर्जुन को मारूँगा। 
 
समरभूमि में यदि अर्जुन ने
शीश कर्ण का काटा। 
पंच पुत्र जीवित हों तेरे
नहीं तुम्हारा घाटा। 
 
समरभूमि में यदि कर्ण ने
अर्जुन को संहारा। 
चार सुतों के साथ कर्ण
हो पंचम पुत्र तुम्हारा। 
  
नहीं मिलेंगे पार्थ कर्ण द्वय
पृथा यही दुर्भाग्य तुम्हारा। 
पाँच पुत्र तेरे जीवित हों
वचन कर्ण ने आज ये हारा। 

 

(कुंती रोते हुए कर्ण को हृदय से लगाती है कर्ण कुंती को साष्टांग प्रणाम करते हैं) 
  
(पटाक्षेप) 

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