भारतीय संस्कृति में मूल्यों का ह्रास क्यों

15-05-2021

भारतीय संस्कृति में मूल्यों का ह्रास क्यों

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 181, मई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

जीवन और मृत्यु हर प्राणी के जीवन के दो सिरे हैं। इस पृथ्वी  पर मनुष्य का आविर्भाव संवेदना के कारण  ही हुआ है। जब हम मानवीय संवेदनाओं की बात करते हैं तो उसका परिक्षेत्र बहुत व्यापक होता है। मानवीय सम्वेदनायें सिर्फ़ मनुष्य के आपसी व्यवहार तक सीमित नहीं हैं बल्कि इस पृथ्वी पर चर-अचर के साथ मानव व्यवहार से जुड़ी हुई हैं। आज मनुष्य समाज के बनाये गए प्रतिमानों को खंडित करने पर तुला हुआ है। आज ऐसे प्रतिमानों की स्थापना की जा रही है जिनके साथ समाज नकारात्मक दिशा में जाते हुए दिख रहा है। समाज और व्यक्ति के मतभेद बढ़ रहे हैं।

समाज में पारिवारिकता का ह्रास हो रहा है, आपसी  रिश्तों की मर्यादायें टूट रही हैं। आधुनिकता का नाम लेकर संबंधों में फूहड़ता पनप रही है। समाजों की नकारात्मक मानसिकता ने पारिवारिक संबंधों, प्रकृति, पर्यावरण एवं मानवीय संवेदनाओं का क्षरण किया है। हवा, पानी, वृक्ष, जीव एवं सम्पूर्ण धरती इसका शिकार हो रहे हैं। पुरानी परम्पराओं ने इन सब में ईश्वर इस लिए प्रतिस्थापित किया था क्योंकि इनमें जीवन पलता है। किन्तु वर्तमान में इन सब का दोहन करके मनुष्य स्वयं को विखंडित एवं असुरक्षित कर रहा है।

इस पृथ्वी बल्कि इस ब्रह्माण्ड का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने का दावा करने वाले मनुष्य को व्यवहारिक रूप से निकृष्टता की और बढ़ते देखना एक दुःख स्वप्न की तरह है।

आज कीउपभोक्ता संस्कृति उपभोग करना जानती है। आम जनता की हित,  अहित, सुख–दुःख, लाभ–हानि आदि सन्दर्भों से इसका कोई सरोकार नहीं रह गया है। यह संस्कृति इतनी अमानवीय हो गई है कि अपने प्रचार के लिए ग़रीब किसानों को सरेआम फाँसी  पर लटका दिया जाता है, दलितों के सरेआम कपड़े उतार कर उसका वीडियो बना कर सरे संचार माध्यम अपने आप को धन्य समझते हैं। आज के कोरोना काल में तो स्थितियाँ और भी भयावह हो रहीं है लोग साँसों के लिए तड़फ रहे हैं ऑक्सीजन, अस्पतालों में बिस्तरों का सौदा हो रहा दवाइयों की कालाबाज़ारी चरम पर है ये सब इसलिए कि नैतिक मूल्य खो चुके हैं।

युवा पीढ़ी भटकाव के रास्ते पर है। इसका मुख्य कारण  पारिवारिक संस्कारों का आभाव एवं सामाजिक मूल्यों में बदलाव प्रमुख है। दूर संचार तकनीक के विकास के साथ दुराचार एवं आप संस्कृतियाँ समाज में व्याप्त हो चुकी हैं। युवाओं में भावनात्मक भटकन है। इसका दूसरा मुख्य कारण शिक्षा का अधूरापन है। शिक्षा सिर्फ़ किताबों में सिमट कर रह गई है। नैतिक मूल्यों का समाज से पलायन जारी है। परिवार एकल होने कारण अच्छे नैतिक शिक्षा के संस्थान नहीं बन पा रहे हैं। माता-पिता स्वयं भ्रमित हैं उन्हें अपनी प्राथमिकताएँ ही नहीं पता सिर्फ़ पैसा कमा  कर कोई भी अपनी संतान को योग्य नहीं बना सकता है।

लक्ष्य की खोज न कर पाने से युवा दिग्भ्रमित है। ओछे आकर्षण उसे लुभा कर गहरे गर्त में धकेल रहे हैं 'किसी भी कीमत पर सफलता' का आकर्षण माँ-बाप एवं युवाओं को विनाश की ओर ले जा रहा है।

नैतिकता की ढहती दीवारें यौवन को विनाश की और ले जा रही हैं। मर्यादाओं एवं वर्जनाओं को लाँघती जवानी नष्ट हो रही है। आज युवा जिस रास्ते पर अग्रसर है उसमें स्वछन्दता तो है लेकिन स्वतंत्रता नहीं है। आज के युवा का जीवन भ्रम और भ्रान्ति में कट रहा है। महानगरीय संस्कृति ने युवाओं की वर्जनाओं को तोड़ दिया है। भड़कीले परिधान अंगप्रदर्शन करने वाले कपड़े, कान में लगे इयर फोन, हाथों में महँगा मोबाइल और आँखों से ग़ायब होती शर्म ये महामारी महानगरों से क़स्बों व गाँवों में फैल चुकी है।

आज भी समाज जातिगत, धर्मगत,एवं सम्प्रदायगत संकीर्ण मानसिकता में जी रहा है। आज आतंकवाद, नक्सलवाद, तालिबान, आईसिस एवं अनेक सम्प्रदायवादों की तांडव लीला में मनुष्य का जीवन कीड़े-मकोड़ों जैसा बन गया है। कमज़ोर, असहाय, अभावग्रस्त व्यक्ति की यह नियति है कि वह ताक़तवर के सामने नतमस्तक हो। सामंती एवं [पूँजीवादी मूल्यों से ग्रसित शोषित एवं असंघटित समाज व्यवस्था ने मनुष्य को विवेक हीन एवं चेतना शून्य बना दिया है। आज की उपभोक्ता संस्कृति वास्तव में सामाजिक मूल्यों एवं मानवीय संवेदनाओं के प्रति असहिष्णु है।

आज व्यक्ति सच का बयान नहीं कर सकता है वह अन्याय का प्रतिकार नहीं कर सकता है। आज व्यक्ति सामाजिक एवं मानवीय संवेदनाओं के लिए अपने भौतिक सुख त्यागने के लिए तैयार नहीं है। दलित अभी भी दलित बना हुआ है। दलित उद्धार के नाम पर वोट हथियाने वाले जब शासन में आते हैं तब दलितों से उनका सरोकार ख़त्म हो जाता है।

स्त्री विमर्श समकालीन एक मर्मान्तक विषय है समाज में एक और जहाँ  स्त्री समानता, नारी स्वतंत्रता, नारी जाग्रति, नारी चेतना उनके अधिकार एवं शिक्षा पर बड़ी-बड़ी बातें होती हैं वहीं दूसरी ओर निर्भया जैसे हज़ारों बलात्कार, हत्याएँ, स्त्री प्रताड़ना की घटनाएँ थम नहीं रहीं हैं। यह सिद्ध करती हैं कि मानवीय संवेदनाओं का क्षरण तेज़ी से हो रहा है।

किसी देश, जाति या समाज की संस्कृति का मूल आधार उसके मानवीय मूल्य एवं परम्परायें होती हैं जो काल के घात–प्रतिघात सहते हुए भी अपनी विशिष्ट पहचान नहीं खोते हैं। ये जीवन मूल्य हमारे सामाजिक एवं आध्यात्मिक चिंतन से बने होते हैं। अनादि वर्षों के सांस्कृतिक एवं सामाजिक सरोकारों को अपने में समेटे हुए ये मानवीय संवेदनाओं के संवाहक होते हैं। ये हमारी सांस्कृतिक चेतना की पहचान होते हैं। आधुनिक पाश्चात्य चिंतन हमारी संस्कृति और समाज के मूल्यों पर स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। हर देश की संस्कृति एवं सभ्यता उस देश के समाज एवं समय के लिए अनुकूल होती है लेकिन अगर कोई दुसरे देश या समाज इस की नक़ल करता है तो इसके परिणाम हमेशा गंभीर एवं पतनोन्मुखी होते हैं। टूटते परिवार, बिखरते दाम्पत्य जीवन, बच्चों के भविष्य की असुरक्षा, नारियों के प्रति असंवेदनशीलता, पर्यावरण के प्रति उदासीनता, पूँजीवादी मानसिकता, शीघ्र सफल होने की प्रवृत्ति आज हमारी संवेदनाओं को विकृति की ओर प्रेरित कर रही है।

आज हर रिश्ता तनाव के दौर से गुज़र रहा है। माता-पिता, भाई-बहिन, पति-पत्नी, दोस्ती, अधिकारी कर्मचारी एवं पारिवारिक व सामुदायिक रिश्ते यांत्रिक होते जा रहे हैं। रिश्तों में निजता की ऊष्मा ख़त्म होती जा रही है। पीढ़ियों की ये रिक्तता, संवादहीनता, युवाओं में मूल्यों का ह्रास, संस्कारों की कमी एवं पारिवारिक रिश्तों में गहनता का खो जाना मानवीय संवेदनाओं के लुप्त होने के कारण ही है। टीवी, इंटरनेट एवं मोबाइल जहाँ  दूरसंचार के क्षेत्र की क्रांति बन कर उभरे हैं वहीं उनके दुष्परिणाम भी आज समाज भुगत रहा है। इनके ग़लत उपयोग से समाज की परम्परागत आस्थाएँ, मान्यताएँ एवं मूल्यों में विकृति आ चुकी है; जीवन के श्रेष्ठता के मानदण्ड बदल गए हैं। चिंतन की विकृति से चरित्र भी विकृत हो गया है।

आज के युवा में व्यवहारिक सामंजस्य, बौद्धिक श्रेष्ठता एवं सामाजिक प्रतिबद्धता का अभाव है। वह सिर्फ़ किताबी ज्ञान एवं मशीनों में उलझ कर भ्रमित है। समाज एवं नैतिक संस्कारों से उसका सरोकार ख़त्म हो चुका है।

सामुदायिक रिश्तों के पर्याय हमारे गाँव सबसे ज़्यादा विकृति की ओर बढ़ चले हैं। पिछले वर्षों में ज़मीनों के ऊपर से  एवं घरेलू झगड़ों में सर्वाधिक मौतें गाँवों में ही हुई हैं। आज मशीनों एवं मानव के बीच संघर्ष चल रहा है। आज चारों ओर पूँजी, प्रॉपर्टी, धन, बाज़ार एवं व्यवसायिकता का ही बोलवाला है इनके सामने मानवीय मूल्य, चरित्र एवं संस्कार सब बौने नज़र आने लगे हैं।

मनुष्य को पशुओं से अलग करने वाले संस्कार, सम्वेदनायें एवं जीवन मूल्य आज उसे पशुता की ओर ले जा रहे हैं। लेकिन आशा की किरण अभी बाक़ी है। युवाओं को सही रास्ता दिखाना होगा क्योंकि जब तक युवक अपनी मौलिक विशेषताओं एवं संभावनाओं को नहीं समझेंगे तब तक भटकाव जारी रहेगा। युवाओं में संकल्पशक्ति जागृत होनी चाहिए संकल्प से व्यक्ति संयमित एवं दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाता है असंभव से संभव करने की यह ऊर्जा संकल्प शक्ति ही है।

युवाओं को ऐसे मार्गदर्शक की ज़रूरत है जिनके सानिध्य में युवा ऊर्जा का ऊर्ध्व गमन हो, पवित्र एवं परिष्कृत जीवन शैली अपनाने की प्रेरणा मिले। जिन का अनुकरण करके युवा अपने अंदर साहस, संवेदना, सेवा और सृजन के गुणों को अपने में विकसित कर सकें।

आज के युवा को ज़रूरत है ज़िंदगी को नए सिरे से समझने की अपने अंदर की विकृतियों से लड़ कर सृजनात्मक चिंतन विकसित करने की और समाज को इस कार्य में युवाओं की सहायता करना चहिये।आज आवश्यकता है नई पीढ़ी को यह सबक़ देने की कि प्रगति यदि मानवीय मूल्यों के आधार पर होती है तो वह शाश्वत, सृजनशील एवं सबका कल्याण करने वाली होती है।

और अंत में मानवीय संवेदनाओं के क्षरण को गहरे अर्थों  में उजागर करती सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की एक कविता।
यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में लाश पड़ी हो
तो क्या तुम दूसरे कमरे में गा  सकते हो।
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रही हो,
तो क्या तुम दूसरे कमरे में बैठ कर प्रार्थना कर सकते हो।
यदि हाँ तो मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना।
 

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