पानी पानी हो गया
हेमन्त कुमार शर्मा
वर्षा ऋतु का आरंभ समझो। रात, दोपहर बादल घुमड़ आते। भरे हुए होते हैं। पानी को बरसा आगे और जगह चल देते।
धान की रोपाई की जा रही थी। खेत धान के सद्यः लगाए पौधों से पटा पड़ा था। दोपहर के खाने का समय था। खेतों में किसानों की आवाजाही कम हो गई थी। पेड़ प्रसन्न थे। पशु बारिश से भीगते, गर्मी से राहत पाते, खूँटे से बँधे शाम का इन्तज़ार करते। खल और फ़ीड की मन में साध होगी। दूध दोहने के एवज़ में भाड़ा मिलेगा उन्हें।
बरसाती नदियों में पानी उमड़ पड़ा था। पत्थरों की बहार आ गई थी। माइनिंग वालों की पो बारह हो गई थी।
हाँ, नदी के किनारे पर बनी झुग्गियों का कलेजा मुँह को आने लगा था।
पुल अपने निर्माण कर्ता को स्मरण करने लगे थे।
लोग यूँ ही मर रहे हैं—बमों की बरसात की कोई अधिक आवश्यकता नहीं थी। सड़कें पुलों के बराबर हो गई थीं।
सड़कें पहली बारिश में अपने जवाब पर आ गई थीं।
ठेकेदार बिजली के गड्ढे खोद कर ग़ायब हो गए थे।
बिजली रह रह कर आती।
और पसीना भर भर कर आता। उमस गर्मी से अभी नजात नहीं था।
नाले ब्लॉक हो गए थे। अधिकारी नेट पर सोशल मीडिया में व्यस्त थे। लोगों को निजी बातों से सरोकार था।
इसी, इन्हीं घटनाओं के मध्य कोई बुज़ुर्ग खटिया छोड़ अनन्त को रवाना हो गया।
जीवन की समस्याओं से छूट गया। असल में जीवन समस्या से ही छूट गया।
पर समस्या उन लोगों के लिए खड़ी हो गई जिन्होंने उसे अन्तिम यात्रा में लेकर जाना था।
बारिश सुबह की प्रारंभ थी। रुकने का मन नहीं था आज उसका। पर संस्कार करना ही था।
मरे हुए को अधिक देर घर में नहीं रख सकते। वह चीर निंद्रा में सो गया था। परिवार के अन्य लोग तो जीवित थे। जब तक घर में मृत रहेगा, चूल्हा नहीं जलेगा।
किसी भाँति कीचड़, पानी से होते हुए। श्मशान घाट पहुँचे। हवा भी तीव्र हो गई थी। लकड़ियाँ गीली हो गई थीं। परन्तु आग बालनी ही थी। अपनी पेट की क्षुधा का मामला था।
मिट्टी का तेल आज-कल खाना बनाने को नहीं मिलता। इसीलिए डीज़ल को साथ ले लिया था।
लकड़ियाँ तेल डालने से धूप धू-धू कर जलने लगी।
एक आधा पक्के दिल का व्यक्ति वहाँ छोड़ दिया गया। अन्य सब जल्दी जल्दी तीतर हो गए।
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