रक्षाबंधन यथार्थ में

01-09-2023

रक्षाबंधन यथार्थ में

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 236, सितम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

विलास सदा कोमल सुकोमल शब्दों का ग्राहक रहा था। उसे कठोर शब्दों से एक तरह की एलर्जी थी। बहन का संदेश आया कि वह इस बार आ नहीं पाएगी—डाक द्वारा राखी भेज रही थी। कुछ पैसे भी मनीऑर्डर किये जिससे मिठाई आदि ला टिका करने के लिए कहा। 

माँ ने कहा, “विलास मीनाक्षी के पास ही जा आ। पता नहीं क्यों मन घबरा रहा है। कभी ऐसा नहीं हुआ वह राखी पर ना पहुँचे। फोन पर उसकी आवाज़ भी भारी लग रही थी।” 

वह माँ की बात पर अधिक ध्यान नहीं दे रहा था। 

“सुनता भी है? किस उधेड़बुन में फँसा है। जा देख तो अपनी बहन को, वह कैसी है?” 

तभी पिता ने प्रवेश किया। उनके कान में भी यह बातचीत पड़ी। वह विलास की तरफ़ संबोधित हो बोले, “महाराजा पटियाला है। हमारी बात कहाँ सुनेंगे? जनाब को बहन से क्या सरोकार। मरे या जिए।” 

वह ग़ुस्से में उठकर अपने कमरे में चला गया। उसकी सहनशक्ति से बाहर थे पिता के शब्द। 

“देखा हमारी बातों से कितना चिढ़ता है। ज़्यादा रख-रखाव का नतीजा है। बच्ची को देख आता। मन में चैन पड़ जाती। मूर्ख है, गधा कहीं का,” पिता आग बबूला हो उठे। 

विलास की आदत थी, माँ की बात प्रथम वह मानता नहीं था। पर पता नहीं क्या कारण था। बाद में ग़ुस्सा शांत होने पर माँ के इर्द-गिर्द घूमता रहता मनाने के लिए। उसकी कही बात को यथार्थ में परिवर्तित करने के लिए। 

“अच्छा तुम कहती हो तो मैं अवश्य जाऊँगा। पर वहाँ रुकने को मत कहना।” 

माँ की आँखों में प्रसन्नता की झलक थी। विलास को आराम मिला। काफ़ी देर से मन व्याकुल था उसका। 

मीनाक्षी को संदेश नहीं पहुँचाया गया कि विलास उसके पास राखी बँधवाने आएगा। उसे आश्चर्य में डालना चाहता था। घर में प्रवेश किया। मीनाक्षी घरेलू काम में व्यस्त थी। उसे सामने देख आश्चर्य चकित हो—आँसू भरी आँखों से निहारने लगी। शायद अभी भी उसे विश्वास नहीं हुआ था। 

“देखा, इसे कहते हैं तगड़ा सरप्राइज़।” 

विलास के मुख से यह सुन वह रो ही पड़ी। 

“अरे, अरे रुलाने थोड़ी ही आया हूँ। क्या मेरा आना अच्छा नहीं लगा। लौट जाऊँ?” 

आँखें पोंछते हुए विलास को खींच कर सोफ़े पर बिठा दिया। 

“मम्मी पापा कैसे हैं? और तू कैसा है? पहले से दुबला हो गया है। मम्मी क्या टाइम पर खाना नहीं देती?” 

“स्नेह रखने वाले सदा यही शब्द बोलते हैं। तुम ठहरो। क्या मम्मी की तरह बोलने लगी। यह सामान रखो। मम्मी ने भेजा है और पापा ने यह दस हज़ार रुपए दिए हैं। अपने पास भी रखना। कहीं सारे ही जीजा जी को दे दो।” 

राखी बँधवाकर विलास जब जाने लगा रुक के मुड़कर कहा, “जीजा जी जब आएँ उन्हें मेरी नमस्ते कहना। और हाँ, यह तीन हज़ार हैं—मेरी पहली तनख़्वाह से, मैंने बचा कर रखे थे। तुम्हें देने को। अगली बार फिर किसी और ज़रिए भेज दूँगा।” 

मीनाक्षी पैसे लेना तो नहीं चाहती थी। पर घर के हालात देख चुप कर गई। 

और आँसू। यह कमबख़्त पलकों पर ही बैठे रहते हैं। फट से बह पड़े। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
कहानी
लघुकथा
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
नज़्म
सांस्कृतिक कथा
चिन्तन
ललित निबन्ध
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में