पत्थर की बात

01-11-2023

पत्थर की बात

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

जब भी देखा ख़ुद को बेचैन देखा। शर्म के सारे किवाड़ टूट गए। अख़लाक़ अपने नाम की तरह कई बरसों तक रहा। पर कल अपनी नज़र में ही गिर गया। सड़क पर गिरे पत्थर को उठाकर रास्ते को साफ़ कर देना। उसका एक नेचर था। मोटरसाइकिल रोक कर यह काम अंजाम देता। पर कल . . . बजरी का ट्रक गुज़रा था। पीछे से खुला आधी बजरी सड़क पर ही गिर गई। थोड़ा बहुत जो वह कर सका, किया। कई लोग उसके आसपास से गुज़रे पर किसी ने उसकी मदद ना की। थक-हार के, ग़ुस्से में दो मोटे-मोटे पत्थर रोड पर गिरा दिए। और अपनी मोटरसाइकिल पर रवाना हो गया। फिर शाम को पता चल कोई औरत स्कूटी चलाते बजरी से स्लिप होकर उन पत्थरों से टकरा गंभीर ज़ख़्मी हो गई। अस्पताल में दम तोड़ दिया। यही बात उसे और परेशान किए थे। उसे लगा वह बड़ा कमीना आदमी और गधों की जमात में बैठने वाला शख़्स था। कितने बरसों से अच्छा बनने का ढोंग करता रहा। पर सब बेकार गया। हाँ, वह ढोंग ही तो था, तो फिर क्या वजह थी वह थोड़ी-सी बात पर नाराज़ हो पत्थरों को उठा सड़क पर गिरा कर चल दिया। यही सोच दिमाग़ में चलती रही। किसी शायर की बात थी—‘दिल नज़र आता किसी मुंसिफ़ की तरह।’

“ट्रक वाले की बजरी ने यह एक्सीडेंट करवाया है,” मुक़ाम ने नासिर से कहा। 

“और, और। नहीं तो कोई और वजह नहीं दिखती।”

वहाँ जब भीड़ जमा थी—आपस में लोग बागचीत कर रहे थे। मुक़ाम से ही अख़लाक़ को यह बात पता चली थी। 

“ड्राइवर को पकड़ना चाहिए। इतनी लापरवाही किसी की जान चली गई। कम से कम सड़क ही साफ़ कर देता। अब महकमा सड़क को कुछ सोचना चाहिए। सड़क बने ना बने पाँच दस बलि ज़रूर चढ़ जाएँगे।”

नासिर ने भीड़ में अच्छा ख़ासा बयान दे डाला। फिर हर बार की तरह भीड़ छँट गई। 

बजरी सड़क पर पहले की तरह पड़ी थी। पत्थर किसी ने हटा दिए थे। गाड़ियाँ धीमे चलतीं। दो पहिया ज़रूर पहले से ज़्यादा एहतियातन चलने लगे और फिर वह ख़ुद थोड़ी ही गिरे थे। बस थोड़ा अंदर का इंसान ही मरा था। किसी ने बजरी हटाई नहीं। 

साफ़ सफ़ाई के बहाने, सड़क चौड़ी करने के बहाने, ट्रैफ़िक से नजात पाने के लिए और मौजूदा हालात को देखते हुए महकमा सड़क अलर्ट पर था। दो आदमी पीले नारंगी महीन कपड़े की जैकेट डाल कर हाथ में बेलचा ले बजरी को साफ़ करने लगे। 

जेसीबी को बुलाया गया। पेड़ का ठूँठ उखाड़ना था। नई सड़क बनाने के बीच आता था। पेड़ का पहले ही राम नाम सत्य कर दिया था। जेसीबी की जान निकल गई पर वह जड़ ना निकली। टैंक के टायरों वाली पोपलेन बुलाई गई। उसने भी काफ़ी में मशक़्क़त के बाद सफेदे की जड़ बाहर निकाली। पर वहाँ गहरा गड्ढा पड़ गया। पीने के पानी की पाइप भी तोड़-मरोड़ दी। मेन लाइन थी। उसके साथ नलकों तक पहुँचे पाइप भी थे। चार पाँच ही थे वहाँ। सब तोड़-फोड़ दिए बस अब यहाँ के रहने वाले पानी से कुछ दिन महरूम रहेंगे। कोशिश करने पर शायद कोई सुन ले जिसकी गुँजाइश कम थी। 

वह गड्ढा जहाँ से सफेदे की जड़ निकाली थी। वह पीने के पानी से भर गया जो टूटी पाइप लाइन से आ रहा था। अच्छा ख़ासा टैंक बन गया वह गड्ढा। पानी बंद करवाया पर तब तक लेट हो गया था। पोपलेन वाले के लोग पीछे पड़ गए। उसने अपने मैनेजर से फोन पर बात की उसने लोगों को भरोसा दिया जो आजकल हर व्यक्ति देता। 

“बाबू से बात की है। प्लंबर भेज रहा है। कुछ ना कुछ तो होगा।” बात पर उसकी भरोसा करते पर कितने लोगों ने सबका सब तरह से भरोसा तोड़ा था। फिर भी, कोई चारा न देख वे मान गए। पोपलेन वाला ख़ुदा को याद कर अपने अड्डे पर जा पहुँचा। और शुक्र की साँस ली। जो शुगर के बाद मुश्किल हो गई थी। 

अगले दिन अख़लाक़ परेशान; घर में पानी की बूँद नहीं बची। घर, मोहल्ले में हाहाकार मच गया। दोपहर तक प्लंबर आ गया था। शायद सड़क महकमे ने भेजा हो या सड़क ठेकेदार ने काम पर रखा हो। क्योंकि सड़क बनने पर इस तरह के मंज़र आम होंगे। और कई बार ऊपर वाला भी सुन लेता। जो भी हो पाइप ठीक करने का काम होना आरंभ हुआ। 

पोपलेन को फिर बुलाया गया। अपने पंजे में पानी भर गड्ढे में से बाहर निकाला। यही जट्ट-मन्तर सूझा उस वक़्त। काफ़ी समय लगा पर करना ही था। नहीं सारे गाँव को पानी नसीब ना होता आज भी। वजह आगे से मेन पाइप पूरी तरह टूटा था। प्रैशर ना होता और नलकों में पानी ना पहुँचता। 

आगे वेल्डिंग से पाइप जोड़, चार पाँच नलके के कनेक्शन कर प्लंबर ने हाथ खड़े कर दिए। शाम होने वाली थी। पानी की सप्लाई चालू करवा के देखी। पीछे मिट्टी में दबे किसी कनेक्शन से पानी निकल रहा था। फिर गड्ढे में भरने लगा। राह चलती जेसीबी को रुकवा उस कनेक्शन की मिट्टी हटाकर कर देखा, वह कनेक्शन बड़े पाइप से ठीक जुड़ा था। बस आगे का नलका टूट गया था। जिसमें एक लकड़ी का गुल्ला फँसा दिया पलंबर ने। 

मकान सड़क वालों ने ख़ाली करा दिया था। मलिक ने तोड़कर मलबा साइड करवा दिया। बस यह नलका ही अनाथ बचा था। उस नलके के मालिक को पाइप बढ़ा कर पईछे खेत में करने को कह वह पलंबर चला गया। पीछे ज़मीन उस मकान मालिक की बची नहीं थी। सो उसने भी ज़्यादा तवज्जोह नहीं दी। चाहे नए कनेक्शन मुश्किल से लगते हों। पीछे की ज़मीन उसके भाई ने कईं पैंतरे कर क़ब्ज़ा ली थी। और वह कनेक्शन उसके नाम पर भी नहीं था। भाई ने बड़ी समझदारी और पैसे के दम पर इकट्ठे रहते माँ के मकान में अपने नाम से नलका लगवा लिया था। वह भी अभी इस बिजली की नंगी तार को छेड़ना नहीं चाहता था। कहीं आती-आती ज़मीन एक और झगड़े से हाथ से निकल ना जाए। लोगों के सामने भगत बन के रहने में भलाई समझी थी। 

एक दिन बिता। अगली सुबह किसी आवारा डंगर के गिरने की इतला गाँव भर में फैल गई। अख़लाक़ को भी पता चला। गड्ढा वही जिसमें से जड़ निकल गई थी। जहाँ से सड़क निकालनी थी। पर यह हादसा घट गया। गाँव छोटा था फिर भी भीड़ बहुत। मेन सड़क थी। शायद चलते यात्री रुक गए हों। 

गाय थी जो कीचड़ में सन गई थी। बाहर निकलने की कोशिश करती, पर निकले कैसे? वह बेदम हो बैठ गई। अब तक गो सेवक मंडली आसपास नज़र नहीं आई। 

कुछ गाँव के नौजवान अख़लाक़, रमन, अर्जुन और अन्य गाय को बाहर निकालने के लिए कोशिश करने लगे। रस्सी का इंतज़ाम किया गया। रस्सी मज़बूत थी जो अख़लाक़ अपने खेत के कुएँ से खोल कर ले आया था। रमन और अख़लाक़ गड्ढे में उतरे थे। गाय घबरा गई थी। पेट कमर से दोराह कर रस्सी बाँधने लगे जिससे उसे बाहर निकाल सकें। कुछ चोटें उन दोनों को भी आई। पर इसकी परवाह ना करते हुए अपने काम में लगे रहे। 

जब वे बाहर निकल गए-दस बारह लोग रस्सी को खींचने लगे पर सब बेकार। बाएँ तरफ़ वही पानी का पाइप और बाहर दिखते उनके कनेक्शन, उनको भी बचाना था। अबकी बार आना भी किसी ने नहीं था, टूटने पर ठीक करने। पहले तो थोड़े सितारे ठीक थे। इस बात का भी डर था। 

अर्जुन ने सुझाव दिया, “उस पोपलेन वाले को बुला लो उसी ने यह गड्ढा किया था। भरकर भी नहीं गया। आएगा, उसका बाप भी आएगा।”

अख़लाक़ ने भी हामी भरी। नासिर को पोपलेन के अड्डे पर भेजा पर वह कहीं काम के लिए गई थी। जहाँ काम कर रही थी उसका पता ले नासिर उस जगह पहुँचा। ड्राइवर को सारी कहानी कहकर, चलने के लिए कहा। 

“बाबू से पूछ लो। मैं ख़ुद नहीं आ सकता,” पोपलेन के ड्राइवर ने जवाब दिया। 

नासिर ने बाबू का नंबर ले फोन घुमाया। वह स्विच ऑफ़ आ रहा था। फिर नरमी से कहा, हद होने पर गर्मी से भी। पर वह ड्राइवर टस से मस नहीं हो रहा था। बस एक ही बात—‘बाबू से पूछ कर जाना होगा’ कहता रहा। 

बात नहीं बनते देख। वहाँ जहाँ गड्ढा था, फँसी हुई गाय थी और गाँव भर की भीड़ थी, पहुँचा। सारा क़िस्सा कहा। लोगों में रोष था। पानी के मसले ने उन में पहले ही चिंगारी लगाई हुई थी। अब वह आग बन गई थी। सब गाड़ी में, पैदल, साइकिल, मोटरसाइकिल-किसी भी तरह पोपलेन के सिरहाने आ खड़े हुए थे। 

वह ड्राइवर घबरा गया भीड़ को देख। फिर अन्य किसी नंबर पर फोन कर सारी ज़मीनी हक़ीक़त बताई। वहाँ से हरी झंडी मिलते ही वह चलने की तैयार हो गया। 

नासिर ने आँखें मटकाते हुए तंज़ कसा, “अब नंबर कैसे मिल गया। मुझे तो ऐसा नंबर दिया जो मिल ही नहीं पा रहा था और ख़ुद . . .”

ड्राइवर ने जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। कुटाई का डर था। बस उनके साथ चलने में ही भलाई समझी। 

ज़मीन खोद कर गाय के लिए रास्ता बनाया गया। जिसे खींचकर बाहर निकाला गया या कहें रास्ता देख कर ख़ुद ही बाहर आ गई। बस रस्सी उसके गले में थी जिसे अख़लाक़ ने पकड़ा था। 

अख़लाक़ उसे अपने खेत में मोटर के पास वाली जगह ले गया। रमन और नासिर उसे हाँकते रहे थे। उसे होदी के पानी से नहलाया। कीचड़ से साफ़ सुथरा किया। डंगर डॉक्टर को बुला उसका मुआयना करवाया। एक आधा टीका भी लगवाया। चोटों पर पट्टी आदि करवा उसे खाने को चरी मिली तुड़ी डालकर अख़लाक़ वहीं पेड़ के नीचे बैठ गया। दोस्त सब चले गए। 

गाय को खूँटा गाढ़ रस्सी से बाँध दिया। पेट भरने पर वह बैठ कर जुगाली करने लगी थी। कुछ देर बाद अख़लाक़ उठा और गाय के गले और सिर को सहलाने लगा। बरबस उन पत्थरों की बात उसे याद आ गई। वह रोने लगा—गाय के गले लग। अनजान होते हुए भी गाय माँ के हृदय से भरी थी। उसने कोई भी हरकत नहीं की जिससे अख़लाक़ को नुक़्सान हो। उसकी आँखें गहरी आत्मीयता लिए थीं। 

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