सब तेरी ज़द में है
हेमन्त कुमार शर्मा
नदी लबालब थी। मकान, दुकान, खेत खलिहान सब डूब गए। नदी ने कहा, “सब मेरी ज़द में है।”
ऊपर से सहायता के लिए बहुत पैसा आएगा। सरकारी अफ़सर की आँखों के आगे नई गाड़ी, नया बँगला विदेश यात्रा सब कुछ तैरने लगा। उसने कहा, “सब मेरी ज़द में है।”
जो सब कुछ लुटा कर बैठे थे। दो कोर आँखों की भीग गई। आँसू ने कहा, “सब मेरी ज़द में है।”
कृत्रिम महँगाई बढ़ गई। एक वर्ग अन्न को भी तरसा। यह मुसीबत देख के महँगाई ने कहा, “सब मेरी ज़द में है।”
सूनी आँखें काला बाज़ारी से बेहाल, असहाय थीं। आकाश की तरफ़ देखकर परमात्मा को याद किया और कहा, “सब तेरी ज़द में है।”
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अगर जीवन फूल होता
- कहते कहते चुप हो गया
- काग़ज़ की कश्ती
- किसान की गत
- खिल गया काँटों के बीच
- घन का आँचल
- जीवन में
- दिन उजाला
- नगर से दूर एकांत में
- नदी के पार जाना है
- पाणि से छुआ
- पानी में मिल जाएँगे
- प्रभात हुई
- प्रेम की कसौटी पर
- बहुत हुई अब याद
- मन इन्द्रधनुष
- मन की विजय
- मैं भी बच्चे की तरह रोना चाहता हूँ
- राम का अस्तित्व
- रेत में दुख की
- वर्षा
- वो साइकिल
- सितम कितने बयाँ
- सुहानी बातें
- ख़ुदा इतना तो कर
- कहानी
- लघुकथा
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- नज़्म
- सांस्कृतिक कथा
- चिन्तन
- ललित निबन्ध
- विडियो
-
- ऑडियो
-