मकान का मुआवज़ा
हेमन्त कुमार शर्मा
पादा जी भनभनाते घर में दाख़िल हुए। मियाँ निवार की कुर्सी ठीक करने में व्यस्त थे। रुक्किया भाभी मुर्गियों को दाना डाल रही थी। टोनी (उनका बुढ़ा पुश्तैनी खच्चर) उन्हें देखकर रस्सी को चबाने लगा जैसे कह रहा हो ‘किस को ग़ुस्सा दिखाते हो।’ अपने अगले पैरों से ज़मीन घिसने लगा। नथुने फुलाकर आगे बढ़ते हुए जैसे खूँटा ही उखाड़ देगा।
“मियाँ जी, देखते हो तुम्हारा रिटायर्ड मुलाज़िम मुझे कैसे घूर रहा है,” पादा जी का ग़ुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था, “तुम कैसे मित्र हो हर जगह पानी ने क़हर मचाया हुआ है। कम से कम फोन पर हाल-चाल ही पूछ लेते कि मैं जीवित भी हूँ या नहीं।”
“हुज़ूर, अभी कल ही पानी का स्तर घर की दहलीज़ से बाहर गया है। अब कुछ राहत है। परेशानी में कहाँ फोन करता फिरता और तुमने कौन-सा मुझे फोन कर लिया?” मियाँ जी ने प्रश्न के ऊपर प्रश्न दाग दिया।
“भाई बाल-बाल बचा हूँ। अगर पड़ोस के श्यामलाल ने पकड़ ना लिया होता तो पानी में बह जाता। गली नदी बन गई थी। पर साइकिल। हाये! मेरी प्यारी साइकिल। उसे ना बचा पाया,” पादा जी रुआँसे से हो गए।
“धीरज रखो, पादा जी। जान बची यही बहुत है,” ढाढ़स बँधाते हुए कहा।
रुक्किया भाभी चाय और बिस्किट लेकर आ गई थी। पादा जी ख़ामोश बैठ गए। चाय के घूँट लेने की आवाज़ ही वातावरण में गूँज रही थी।
“सरकारी मदद शायद मिल जाए,” चाय का कप कुर्सी के नीचे रखते हुए।
“पादा जी, दो महीने पहले नुक्कड़ पर रहने वाले संतोष का पूरा मकान ढह गया था। सरकारी दफ़्तर के काफ़ी चक्कर लगाए। पर कुछ ना बना। कुछ चढ़ावा चढ़ाया तब जाकर बड़ी मुश्किल से अस्सी-नब्बे हज़ार पल्ले पड़े। इसमें एक टीन का शैड बन जाए, वह ही बहुत है। बच्चे दर-ब-दर होने से बच जाएँगे,” मियाँ जी ने अफ़सोस-नाक शब्दों में फ़रमाया।
“पर . . . यह वाली सरकार पहले वाली से अलग है। भ्रष्टाचार को शह नहीं देती?” पादा जी ने वकालत करते हुए कहा।
“अजी, अभी मैंने क्या रामायण बाँची थी। तुम्हें पल्ले ना पड़ी।”
वादे, क़ायदे और कथनी-करनी सब पादा जी के दिमाग़ में घूम गए।
“सरकारें हैं। सभी एक समान ही चलती हैं,” कहकर भीगी आँखों से, मायूसी से अपने घर की ओर रवाना हुए पादा जी।
स्कूटर में पानी घुस गया था और साइकिल पानी में। वह आज पैदल ही थे।
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