मन की विजय
हेमन्त कुमार शर्मा
दीन हीन को उच्चासन पर पहुँचा,
वह वीर विजय का तिलक ले,
आरण्य की कुटिया में आ पहुँचा।
कष्टों के आगार जो चित्त में थे,
शोषण के उद्गार जो हित में थे।
उन सबका विस्मरण कर,
क्यों कर हित हो जन का,
यह विचार मन में आ पहुँचा।
राम पर-उपकार की सोच लिए,
जन जन के दुख का बोझ लिए।
कैसे हित हो लंका का,
कैसे निवारण हो,
सर्व जन की शंका का।
स्वयं अभिषेक कर,
विभीषण को राजपाट देकर।
पग विश्राम स्थली पर आ पहुँचा।
छोड़ा था राजकाज पहले भी,
क्षण में।
कोई चिन्ता ना की।
और अब भी पर की वस्तु का किया,
एक क्षण भी चिन्तन नहीं।
वह राजा था।
पर मन में साधु की साध लिए,
स्वयं में अनाहत नाद लिए।
विजय की कोई बात ना की।
बस चित्त,
जन्म भूमि के स्मरण पर आ पहुँचा।
राम ने मन संयम से सींचा।
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