ग्रुप की कही अनकही
हेमन्त कुमार शर्मा
फन्ने खां ने अपने गधे के कान में कहा, “ग्रुप बनाते हैं।” गधे ने अपने कान हिला कर मना किया। तब जब उसके सींग विद्यमान थे।
“दाना खाने का शउर नहीं तुझ गधे को। तुझे पूछकर मान दिया। तू मना करके अपने गधेमन्दी की बात करता है।”
सोशल मीडिया में ग्रुप की बात का ज़िक्र छेड़ा था उसने। गधे को अपना इकलौता साथी समझ कर।
आदमी से ज़्यादा समझदार था गधा। और बरसों से मेहनत का खाता था। मुफ़्त की आदत नहीं थी। तभी गधा रह गया।
ज़रा सिर ‘हाँ’ में हिला देता। क्या जाता उसका? मालिक के मन में उसका सम्मान बरक़रार रहता। चलो एक तो है जो उसकी बात को सिर माथे पर रखता है। बीवी धेले का नहीं समझती क्योंकि धेला उसकी जेब में नहीं है। बच्चे बदतमीज़ी में डिग्रीधारी हैं। सुबह से शाम बिस्तर तोड़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं करते। धक्का लगा-लगा कर सरकारी कॉलेज से बीए करवाई। नौकरी जीएम की माँगते हैं। जबकि डिग्री बीए की आज-कल हैल्पर की नौकरी दिलाने सक्षम नहीं है। पढ़ाई ‘भांडों में बड़’ (बर्तनों में घुस) गई। ब्याह शादी में बरतन धोने का कभी-कभार काम करने चले जाते—वह भी उनके घर से दूर-जहाँ कोई पहचानता ना हो। वेटर का काम करते प्रोग्रामों में। वह भी छुपकर। कहीं कोई पहचान नहीं ले। यह काम अपने ख़र्चे को चलाने के लिए ही करते। बूढ़े फन्ने खां उनकी इज़्ज़त लिस्ट में नहीं था। अन्य समय में सोशल मीडिया में तुक भिड़ाते कईं ग्रुपों में सदस्य बन अपने समय का बेड़ा ग़र्क़ करते। अपने पिता का अपशब्दों से स्वागत करते। क्यों ना करें जब वह किसी प्रकार भी उनके भविष्य को सँवारने में सक्षम नहीं।
और इस संसार में लाने का गुनहगार था।
लड़के ख़ुद ही तो कहते थे, “गरीबी में जन्म देने से तो अच्छा था पैदा होते ही गला घोंट देते।”
कई बार फन्ने का मन करता गला घोंट ही दे। पर दो हैं, जवान हैं। कहीं उसे ही ना ढा लें—उसी का राम नाम सत्य कर दें।
वैसे भी मनसुख नाई ने कहा था, जब फन्ने उसके पास बाल कटाने गया था। गधे के बाद वही एक दुख-सुख का साथी था उसका।
“जब बच्चा गिरेबान पकड़ ले बाप का, समझ लो वह बड़ा हो गया। उससे बच कर रहने में ही भलाई है। समझो वह बाप बन गया है।” मनसुख की बात फन्ने ने गाँठ बाँध ली थी। अब बच्चों से कन्नी काट के रखता।
मनसुख नाई ने एक और बात पर रोशनी की थी, “ग्रुप बना लेते हैं।”
“ये किस आफ़त का नाम है?” फन्ने खां आश्चर्य में पड़ गया।
“अरे यह सोशल मीडिया में बनाते हैं।”
मनसुख के दो घंटे समझाने के बाद भी उसके पल्ले अधिक कुछ नहीं पड़ा था। उसने अपने बुद्धिमान सहयोगी गधे से पूछ कर बताने से कहा कि बनाएँ या नहीं। इसी बात की गधे ने सिर हिला के तुरन्त ना कर दी थी।
इसी बात की खुन्नस फन्ने खां के मन में घर कर गई थी। वह अपने गधे से नाराज़ हो गया। उसे दोपहर को घास भी नहीं दिया था। वह मुँह फुला कर बैठा था। पर बरसों साथ रहने के बाद उनमें एक मोह बँध गया था। हरे घास की टोकरी उसके सामने रख, उसकी पीठ सहलाने लगा। गधे से फिर ग्रुप की बात छेड़ी। वह अपनी ‘नहीं’ पर अड़ा रहा।
अब फन्ने सोच में पड़ गया था, ‘वह ऐसे तो मना करने वाला नहीं था। क्या कारण है? क्या ग्रुप कोई बुरी बात है।’
गधे की बात समझने के लिए दुभाषिए को बुलाया गया।
और वह पोलिटिक्ल ऐनालिस्ट था। अधिक पैसे खाने की वजह से वह दिल का मरीज़ बन गया था। कुछ दिन पहले ही बाईपास सर्जरी करवाई थी। डॉक्टर ने आराम करने सलाह दी। पर गधे का दुभाषिया बनने का सुअवसर वह खोना नहीं चाहता था। किसी विद्वान की संगति में उसे रहे बड़े दिन हो गए थे। नेता लोगों की छाया से भी आजकल वह परहेज़ करने लगा था, सावधानी वश। उनके सानिध्य में वह कहीं का नहीं रहा था। इसी ‘कहीं का नहीं रहने’ का ‘लोगो’ वह अपने से हटाना चाहता था।
मनसुख नाई की दुकान इस काम के लिए निश्चित की गई।
विद्वानों की बातों का मनसुख भी लाभ उठाना चाहता था। सो उसने अपनी दुकान में मीटिंग करने की हरी झंडी दे दी।
निश्चित स्थान, निश्चित समय पर गधे के साथ वार्तालाप आरंभ हुआ।
प्रथम प्रश्न फन्ने खां ने पूछा, “ग्रुप क्या है? मनसुख की बात मेरे ख़ास पल्ले नहीं पड़ी।”
दुभाषिया भाई ने प्रश्न बता, उत्तर सुन, उसका सरलीकरण कर बताया, “सबकी जानकारी बढ़ाते हुए गधा जी फ़रमाते हैं कि ग्रुप उल्लू बनाने में सक्षम है। रात को जागने का अभ्यास बिना अभ्यास के आ जाता है। परमात्मा ने दिन काम को और रात सोने को दी है। पर ग्रुप मेम्बरान इसका उल्ट ही नहीं सुल्ट भी करते हैं। दिन में सोने के कारण मुफ़्तख़ोरी की आदत पड़ जाती है। और रही बात ग्रुप क्या है-इसका उत्तर यह है कि अपनी कहो, दूजे की सुनो नहीं।”
मनसुख नाई ने बात में जोड़ा, कहा, “अपनी पत्नी की तरह।”
“इससे लाभ किसको होता है?” फन्ने का अगला सवाल था।
“सबसे ऊपर के व्यक्ति को।” यह बात गधे को झट से समझ आ गई तभी तो उसने फट से उत्तर दे दिया।
बोरिंग सभा के कारण भीड़ छँटने लगी। सोशल मीडिया से लोग-बाग अधिक समय दूर नहीं रह सकते। शायद यह भी कारण था।
भीड़ के छँटने पर पत्रकार महोदय भी छिटक गए। फन्ने खां अपने गधे को हाँकते हुए अपने घर की ओर बढ़े।
मनसुख नाई अपने काम में व्यस्त हुआ। गधे के सींग और ग्रुप बनाने का स्वप्न टूटा फन्ने का। वैसे वह आलसी था। ग्रुप उसे पचा जाता। पर वह ग्रुप की तरह निष्क्रिय हो गया। गधे को चुगाने में व्यस्त।
हेमन्त कुमार शर्मा
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ग़ज़ल
- सजल
-
- अगर प्रश्नों के उत्तर मिल जाते
- अब अँधेरा भी शरमा जाता है
- अब किनारों की ज़रूरत नहीं
- अब किस को जा कर ख़बर लिखाएँ
- अब क्या लिखूंँ
- इधर गाँव जा रहा है
- इस प्रेम मार्ग की बात न पूछ
- इस शहर की कोई बात कहो
- उठोगे अगर
- उस नाम को सब माना
- उसने हर बात निशाने पे कही
- एक इम्तिहान में है
- एक फ़ैसला रुका हुआ है
- और फिर से शाम हो गई है
- कहीं कभी तो कोई रास्ता निकलेगा
- कुछ ख़्वाब अभी अधूरे हैं
- कोई एक बेचैनी सी
- चर्चा आम थी
- जिसके ग़म में तुम बिखरे हो
- जीवन है और कुछ भी नहीं
- डूब जाएगा सारा जहाँ
- नाम याद आता है पीड़ा के क्षण में
- पार हाला है
- फिर किसी रोज़ मुलाक़ात होगी
- बाक़ी कहानी रहनी चाहिए
- मेरी बात का भरोसा करो
- मेरे आईने में तस्वीर हो तुम
- मैं भी तमगे लगा के फिरता हूँ
- वह पथ अगम्य
- सब अपनी कही पत्थरों से
- ज़िन्दगी के गीतों की नुमाइश
- कहानी
- कविता
-
- अगर जीवन फूल होता
- अपने अन्दर
- अब इस पेड़ की बारी है
- आँसू भी खारे हैं
- एक पटाखा फूट गया
- और भी थोड़ा रहेगा
- कल्पना नहीं करता
- कहते कहते चुप हो गया
- काग़ज़ की कश्ती
- किसान की गत
- कोई ढूँढ़ने जाए कहाँ
- क्या हो सकता है क्या होना चाहिए
- क्षण को नापने के लिए
- खिल गया काँटों के बीच
- गाता हूँ पीड़ा को
- घन का आँचल
- जानता हूँ कितना आज्ञाकारी है
- जीवन की पहेली
- जीवन में
- तुम चाँद हो
- तू कुछ तो बोल
- दरिया है समन्दर नहीं
- दिन उजाला
- देखते। हारे कौन?
- नगर के अरण्य में
- नगर से दूर एकांत में
- नदी के पार जाना है
- पर स्वयं ही समझ न पाया
- पाणि से छुआ
- पानी में मिल जाएँगे
- पीड़ा क्या कूकती भी है?
- प्रभात हुई
- प्रेम की कसौटी पर
- बहुत कम बदलते हैं
- बहुत हुई अब याद
- बूँद
- मन इन्द्रधनुष
- मन की विजय
- मुझे विचार करना पड़ता है
- मेरा किरदार मुझे पता नहीं
- मैं भी बच्चे की तरह रोना चाहता हूँ
- मैं रास्ता हो गया हूँ
- मैंने भी एक किताब लिखी है
- राम का अस्तित्व
- रेत में दुख की
- वर्षा
- वह बड़ा धुरंधर है
- वो साइकिल
- शहर चला थक कर कोई
- शाह हो या हो फ़क़ीर
- सब भ्रम है
- सब ग़म घिर आए
- साधारण रंग नहीं है यह
- सितम कितने बयाँ
- सुहानी बातें
- हद वालों को बेहद वाला चाहिए
- ख़ुदा इतना तो कर
- नज़्म
- लघुकथा
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- सांस्कृतिक कथा
- चिन्तन
- ललित निबन्ध
- विडियो
-
- ऑडियो
-