सर्टिफ़िकेट का मामला

01-10-2023

सर्टिफ़िकेट का मामला

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 238, अक्टूबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

“सर्टिफ़िकेट ले लो, सर्टिफ़िकेट।”

अमर के कान में आवाज़ पड़ी। उसने अपने कबूतरनुमा घर की बालकनी से झाँका। नीचे कोई व्यक्ति, जिसने पुराना कुर्ता पजामा डाला था, गले में गमछा पसीना पोंछते हुए। ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर हलकान हुआ जाता था। 

“क्या बेचते हो?” ऊपर से ही चिल्ला कर पूछा। 

“साहब नीचे आ जाओ। इतनी दूर से बताना मुनासिब नहीं।”

मन में कौतूहल भर अमर लगभग भागता नीचे आया। साँस फूल गई। शांत होने पर, “बताओ क्या बेचते हो?” 

“जनाब, साहित्य लेखन के लिए सर्टिफ़िकेट बेच रहा हूँ। सम्मान के लिए।”

“क्या इसके पैसे लगेंगे?” 

“बिल्कुल।”

“कितने?” 

“सौ रुपए प्रति सर्टिफ़िकेट।”

“इतना अधिक! मैं और मेरे जैसे साहित्य लिखाड़ी इतना अफ़ोर्ड नहीं कर सकते। कुछ कम करो।”

“संपोसर्ड सर्टिफ़िकेट ले लो।”

“वह क्या बला है?” 

“क्या कोई साहित्य विधा में प्रशासन चलाने के अगुआ का गुणगान किया है? कोई पार्टी तुम्हें सपोर्ट करती है? किसी मुखिया के कामकाज को लोगों के मध्य अपने हुनर से नवाज़ा है।”

“ऐसा कभी ख़्याल नहीं आया।”

“तो यह सर्टिफ़िकेट तुम्हारे लिए नहीं है।”

उसे आगे बढ़ते देख अमर ने निराशा और मरी-सी आवाज़ में संबोधित करते पूछा, “भैया आप कौन हो? आपके सर्टिफ़िकेट की वैल्यू क्या है?” 

पीछे मुड़कर देखा। कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “संपादक कम प्रकाशक हूँ। तीन दिन नहाए हुए हो गए हैं। पत्रिका को जारी रखने में घर बार बिक गया। बीवी बच्चे ज़लालत की ज़िन्दगी छोड़ चले गए। आगामी अंक निकालने के लिए पैसे चाहिए थे। सब पाठक बाट जोह रहे हैं। सोचा पढ़ाई के सर्टिफ़िकेट जब बिक सकते हैं, मैं भी साहित्य के . . .”

“फिर कुछ सफलता मिली,” बात काटते हुए अमर की ध्वनि व्यग्र और जिज्ञासु थी। 

“घर में बैठे बिके नहीं। बाहर रेट देने वाले साहित्य प्रेमी मिले नहीं। और लेखक को ही देना था। पर लिखने वाले इतने बोदे हैं, क्या कहूँ। फिर सोचा पढ़ने वाले को ही बाँट दूँ। ज़्यादातर लेखक पार्टियों के छद्म नुमाइंदे थे। अब निराला का ज़माना नहीं है। निराला ज़माना है।”

“क्या सुधी पाठक मिले?” 

“छनकना। एक भी नहीं। वह ख़ुद सोशल मीडिया तुकिये हैं। उनके पास टाइम नहीं। उल्लू की तरह रात जागते हैं। बस उल्लू और उनमें यही फ़र्क़ है कि यह दिन में भी देख सकते हैं।”

“फिर पत्रिका में छापते क्या हो?” 

“अपने आँसू, अपनी व्यथा। कुछ सच में ही रचनाकार हैं। अच्छा वृत्तांत उठाते हैं। उनकी पूछ नहीं। उन पे पैसा नहीं। सर्टिफ़िकेट का फँदा डाला था। पर वह सौ भी दे नहीं पाए।”

“जो सर्टिफ़िकेट ले रहे हैं उनका क्या?”

“कहा ना ज़्यादातर अयोग्य हैं। आने वाले समय पर मुझे उन्हीं की सहायता ले पत्रिका चलानी पड़ेगी।”

चश्मे के नीचे आए आँसू को पोंछा, नाक को सिकोड़ा। आगे बढ़ता रहा चिल्ला कर। उसकी आख़िरी कोशिश को देखता रहा अमर। 

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