सब चुपचाप से

15-07-2025

सब चुपचाप से

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

पक्ष रखने के बाद वह चुपचाप पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। उसने विचार किया कि अधिक बोलने से अब कोई लाभ नहीं था। वह अगर और कहेगा भी तो कोई उसको सच नहीं मानेगा। उल्टा उसे ही नसीहत दी जाएगी। 

लोगों की भीड़ में वैसे भी कम आवाज़ को, धीमी आवाज़ को सुना ही नहीं जाता। जो जितना चिल्ला कर बोले चाहे वह असंगत ही हो, उस पर हँसी-ठठा हो सकता है, उसकी बात को ध्यान से सुना जा सकता है। परन्तु जिसकी भाषा, जिसकी बोली, जिसकी आवाज़ धीमी हो उसे कोई नहीं सुनता। रामकिशोर ने मौन धारण कर लिया। 

अच्छी ख़ासी पिटाई हुई थी उसकी। पुलिस वालों ने सारी रात ख़ूब सेवा की। किसी बड़े व्यापारी ने चोरी का इल्ज़ाम लगाया था और और सब लोगों की जेबें भी गर्म कर दी थीं। पुलिस वाले अपने कर्त्तव्य से कैसे छूट सकते थे। 

गणेश रामकिशोर का लड़का था, उसे थाने में समझौता करने के लिए बुलाया था। रामकिशोर पुलिस की मार से बेहाल था। जितना वह कह पाया, कहा। उसकी बुद्धि बिखरी हुई थी। 

गणेश कई जगह घूमा था, पिता को पुलिस से छुड़ाने के लिए। एक-आधा फोन भी करवाया था। शायद उसी का असर था जो पुलिस वाले उसे समझौते के लिए बुला रहे थे। 

थोड़ा-बहुत माल इधर-उधर कर देता था रामकिशोर। पर इस बार वह निर्दोष था। संदेह उस पर आया। वह मासूम था। 

पुलिस ने कुटाई की थी। वह भी पैसे लेकर। भला आराम की थोड़े थी। 

ऊपर बात पहुँच गई थी। फोन किसी रसूख़दार का था। जाँच बैठ सकती थी। रामकिशोर अनियमित बड़े लोगों के खेतों पर काम करता रहता था। उन्हीं में से किसी के ऊँचे त'अल्लुक़ात होंगे। उसने रामकिशोर की मदद कर दी होगी। 

बड़े अफ़सर ख़ुद जाँच करने आएँगे। चौंकी में हड़कंप मच गया। समझौता करवाने की क़वायद शुरू हो गई थी। इसी सिलसिले में गणेश को बुलाया गया था। ‘समझाने’ के लिए। 

थाना इंचार्ज ने पहले हड़काया, डराया। पर बात बनते न देख। माफ़ी माँगने पर उतर आया। जाँच अधिकारी के सामने मुकर जाने को कहा, प्रार्थना करने लगे कि पिटाई की कुछ बात न करें। 

पैसे भी दिए प्राइवेट अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती भी करवा दिया। 

इधर जिस रसूख़दार व्यक्ति ने सहायता की थी उसने गणेश को सावधान कर दिया था कि अधिकारी आने वाला है, सच-सच बता देना उसकी इज़्ज़त का प्रश्न है। 

चौकी इंचार्ज परले दर्जे का मक्कार था। उसने रामकिशोर को और पैसे दे दिए। अपनी बीवी बच्चों को अस्पताल ले आया, पैर पड़वा दिए। रामकिशोर बुज़ुर्ग ही था। इस बात में उन्हें कोई परेशानी नहीं थी। 

सब नुस्ख़े आते थे। इंचार्ज जानता था लड़ने में आगे वाले का पड़ला भारी हो तो उसके पैर पड़ जाना चाहिए। वही उसने किया

रामकिशोर अधिकारी के आगे मार से मुकर गया। जबकि गहरी गुम चोटें लगीं थी। रसूख़दार और कुछ ग्रामीण लोग जो रामकिशोर का हित चाहते थे, वह नाराज़ हो गए। न्याय दिलाने के लिए लगे थे। पर सब पानी में बह गया। 

कुछ दिनों के बाद गणेश का पिता रामकिशोर चोटों के ताव न सह पाने के कारण इलाज के दौरान जीवन से हार गया। 

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