जिसके ग़म में तुम बिखरे हो

15-12-2024

जिसके ग़म में तुम बिखरे हो

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 267, दिसंबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

जिसके ग़म से तुम बिखरे हो, 
उससे ही तो तुम निखरे हो। 
 
वह सब मार्ग की बाधाएँ थीं, 
जिन सहारों से तुम उखड़े हो। 
 
वह ही बाहर भीतर है देखो तो, 
तुम उस घट के एक टुकड़े हो। 
 
जिसमें कोई दौड़ नहीं सुनते हो, 
फिर अगड़ों को क्यों अखरे हो। 
 
कितनी बेचैनी कितनी आशाएँ, 
इस विरोध में अपने से उभरे हो। 
 
कल की आशा तो एक निराशा है, 
क्या उम्र की रेत मुट्ठी में पकड़े हो। 

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