छोटापन

15-09-2023

छोटापन

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 237, सितम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

दो सौ का नोट लेकर मंडी में बढ़ते हुए उमेश के पैर हिरण की तीव्रता और प्रसन्नता को प्रकट कर रहे थे। माँ ने आवश्यक सामान की पर्ची बना कर दी थी। सब्ज़ी मंडी में दाख़िल होने से पहले ही जलेबी, चाट, गोलगप्पे, नूडल्स आदि की रेहड़ियाँ लगी हुई थीं। जिसे देखकर उसका मन ललचा पड़ा। पर माँ ने केवल दस ही रुपए अपने ऊपर ख़र्च करने की चेतावनी दी थी। सो वह मंडी के अंदर चला गया। यह सोचकर कि बाद में आते हुए इस पर विचार करेगा। 

आलू और प्याज़ लेने के बाद केवल साठ रुपए ही बचे थे। माँ ने तो काफ़ी सामान लिखा हुआ था। यह सब क्या आएगा? टमाटर ढाई से तीन सौ रुपए किलो था और उसकी जेब में साठ रुपए बचे थे। घीया अस्सी तो शिमला मिर्च डेढ़ सौ रुपए किलो थी। कम लेनी हो फिर रेट पचास रुपए पाइया। करे तो क्या करे? अपने छोटेपन पर खिसिया पड़ा। कब बड़ा होगा? कब कमा के घर में वह सब सामान ला पाएगा जिसकी घर को चलाने के लिए आवश्यकता होती है। 

पिता के गुज़रने के बाद माँ ही ने घर को सँभाला था। टूटा-फूटा मकान ही सही पर अपना था। बहन और उसे सुबह-सुबह तैयार करके स्कूल भेजना—लंच बना पैक कर देना, ख़ुद काम पर जाना। दादी की दवा और अन्य सामान की व्यवस्था करना। शाम को घर पर आकर फिर रात के खाने की तैयारी . . . कितना सारा काम था। याद करते सिर चकरा गया उमेश का। माँ को अकेला जूझते देख उसे समय ने पहले ही परिपक्व बनाने की ठान ली थी। फिर वर्तमान में पहुँच कर वह अपने बचे साठ रुपए को बड़े असहायपन से देखने लगा। 

अरबी का रेट कुछ कम था। और अरबी उसे बिल्कुल पसंद नहीं थी। पिता के जीवित होने पर उसने खाना खाने में कितने नख़रे किए थे। पूरा दिन खाना ना खाया अरबी बनने पर। अपनी पसंद की सब्ज़ी बनवा कर ही माना था। 

बीस की आधा किलो अरबी लेकर थैले में डाल ली। आगे कद्दू कुछ पुराना था तीस रुपए में डेढ़ किलो मिल गया। दस रुपए बचे थे। हफ़्ते तक सब्ज़ी चलानी थी। बाद में दुकानों पर काफ़ी महँगी मिलती। हफ़्ते बाद ही मंडी दुबारा लगती थी। बीच में दाल, कढ़ी आदि बन जाती थी। दस के सिक्के को ग़ौर से देखा और पर्ची में लिखी हरी मिर्च और धनिया को भी ले लिया। दस में थोड़ा-सा ही आया। पर अब मुफ़्त में मंडी में कहाँ मिलता? दुकान से सब्ज़ी लेने पर दुकानदार मिर्च और धनिया फ़्री में डाल देते। पर सब्ज़ी का रेट ही चौगुना होता था। मिर्च के पैसे उसमें से ही पूरे कर लेते। मंडी से बाहर निकलते हुए वही जलेबी, गोलगप्पे अन्य रेहड़ियों में खड़ी भीड़ को मज़े लेते हुए, खाते हुए बड़ी इच्छा से देख रहा था। पैर बड़े थके और बोझिल थे। सब्ज़ी काफ़ी भारी थी या ज़िम्मेदारी।

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