घन का आँचल
हेमन्त कुमार शर्मा
घन का आँचल ओढ़े,
ऐ वासंती पवन तुम कहाँ चली।
अधखिले फूलों पर चेतनता देती,
कुसुम सुगंध से उत्तमता लेती।
ऐ अदृश्य देवी तुम कहाँ चली।
वृक्षों के शिर डोलाती झुकाती,
मार्गों में शुचिता उभारती।
ऐ मेहतरानी सी तुम कहाँ चली।
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