नया व्यापार
हेमन्त कुमार शर्मा
“मैं चिन्ता करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करता। सुबह से शाम बस यही काम है।”
भौंहों पर तनाव लाते हुए मोहन ने कहा।
जिगर धीमे से मुस्कुराया और हाथ आगे किया।
मोहन आश्चर्य से भर गया, ‘वह हाथ क्यों मिलाना चाहता है। कईं वर्षों से वह शत्रु की तरह व्यवहार करता रहा था। आज फिर यह . . .?’
मन में विचार किया।
मोहन का काम बिल्कुल भी नहीं चल रहा था। हर तरह से निराश था। कई धंधे कर के देख लिए। कोई सिरे ही नहीं लगता। थक-हार के सब्ज़ी बेचने का काम कर लिया। उसमें भी घाटा खा लिया। दुकान पर ग्राहक फटकता भी नहीं था। थोड़ी दूरी पर जिगर की दुकान थी। वह पहले से ही सब्ज़ी, फ़्रूट का काम करता था।
शुरू में जब मोहन ने काम किया था तब जिगर के कुछ ग्राहक टूट कर उसकी दुकान पर आने लगे थे। बाद में उधार-उधुर लेकर फिर दोबारा वहीं जाने लगे।
उधार का तक़ाज़ा करने पर वही पुराने शब्द, “भाग तो नहीं रहे, दे देंगे।”
थक कर उधार का तक़ाज़ा छोड़ दिया।
इस समय विकट परिस्थिति बन गई थी। दुकान छोड़ने पर घर में जो थोड़ा बहुत सम्मान बचा था वह भी समाप्त हो जाता। उधार वापसी की क्षणिक आशा भी निराशा में बदल जाती। और इस आयु के पड़ाव पर अब और काम क्या कर सकता था वह।
इसी दौरान यह महाशय जिगर जी पधारे, हाथ मिलाने।
बैंच रखी वह उस पर बैठ गया था। और मोहन को अपने पास खींच कर बिठा लिया।
लंबी साँस खींचकर कहा, “मोहन मैं जानता हूँ तुम्हारी क्या हालत है। दुकानदारी ख़त्म हो गई है। घाटे में काम चला गया है। मंडी से सामान लाने के भी पैसे नहीं हैं। एक सलाह दूँ। अगर तुम कहो।”
मोहन परेशान था। उसने बस ‘हूँ’ कहा।
जिगर ने प्रस्ताव रखा कि दुकान पर उसकी, सामान वह अपना रखेगा। लोगों को पता नहीं चलना चाहिए कि यह दुकान भी उसी की है। नाम मोहन का रहेगा, काम उसका। चढ़े महीने पन्द्रह हज़ार उसे दे देगा। उसे अपना मेहनताना समझे।
ख़ूब सोच-विचार कर मोहन नौकरी को तैयार हो गया था। घर ख़र्चा किसी प्रकार निकालना ही था। उसे आश्चर्य था, दुकान पर ग्राहक भर-भर कर आने लगे। दोनों दुकानों पर एक रेट। मुनाफ़ा बढ़ता जाता।
बस अब कोई चिन्ता नहीं थी मोहन को धन्धे की तरफ़ से।
और जिगर का एक छत्र राज हो गया मार्केट में।
सब व्यक्ति मोहन की दुकान पर नहीं चढ़ते थे और न ही जिगर की। थोड़े-थोड़े ग्राहक बँट गए। पर सारे एक ही जगह थे।
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