शाम ग़म से भरी

01-10-2025

शाम ग़म से भरी

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

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साफ़ दिखते नहीं, 
साफ़ छुपते नहीं। 
 
याद आने लगे, 
याद करते नहीं। 
 
शाम ग़म से भरी, 
नैन बहते कहीं। 
 
रो गया कुछ यहाँ, 
हाथ मलते नहीं। 
 
साफ़ मन को लिये, 
आह भरते नहीं।

3 टिप्पणियाँ

  • 16 Oct, 2025 12:41 AM

    हेमन्त जी, इतने सही तरीक़े से इतनी गहरी बात को आसान कर समझाने के लिए मैं आपकी आभारी तो हूँ ही, और उससे भी ज़्यादा शर्मिंदा भी, इसलिए आपसे माफ़ी भी माँगना चाहूँगी। कविताओं के साथ-साथ आपकी शेर-ओ-शायरी का स्तर बहुत ही ऊँचा है। और कहाँ मैं, जो शायरी के मामले में बिल्कुल अनाड़ी है। इसीलिए रदीफ़ के नियमों के चक्कर में पड़कर 'कहीं' की जगह 'नहीं' पढ़ लिया। हालाँकि एक बार आदरणीय सम्पादक महोदय जी ने भी समझाया था कि ग़ज़ल बिन रदीफ़ के भी हो सकती है। आशा है मेरी ग़ुस्ताख़ी को आप नज़रअंदाज़ कर देंगे।

  • 15 Oct, 2025 03:08 PM

    मधु जी, आपने मेरी रचना को पढ़ा, उस पर टिप्पणी की, इसके लिए हृदय से धन्यवाद। बहुत सी रचनाएँ उपेक्षा का शिकार हो पढ़ने वाले की बाट जोहती रहती हैं। रचनाकार के लिए यही सबसे बड़ा पारितोषक कि कोई उसकी रचना को सही से बांच ले। आपने कुछ शब्दों की ओर संकेत किया है। जैसे 'नहीं' शब्द का। 'कहीं'शब्द से दो हृदयों का वृत्तांत है।एक हृदय विरह से रो उठता है। दूसरा गंभीर भग्न हृदय को ले मूक। हृदय टूक टूक हुआ जाता है। फिर कभी अपने को ढांढसा बंधा कर मन कह उठता है - रोया था पर कुछ ही। अधिक रोने का लाभ भी नहीं था।जो वियोग या कोई घटना घटी उस पर अब मातम ही मनाते रहें क्या?सो हाथ मलते नहीं। पछतावा करना व्यर्थ है। मधु जी रचना को गहराई से पढ़ने पर आपका धन्यवाद। --हेमन्त।

  • 14 Oct, 2025 03:02 PM

    वाह बहुत ही उम्दा। इतनी छोटी बह्र वाली ग़ज़ल बहुत कम पढने को मिलती हैं। वैसे 'नैन बहते नहीं' मिसरे में शायद भूल से 'नैन बहते कहीं' टाइप हो गया लगता है, और एक दूसरे मिसरे में शायद 'खो गया कुछ यहाँ' होना चाहिए।

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