रिंकू

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 241, नवम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

आते ही सारे जहाँ भर की शिकायत और ग़ुस्से का इज़हार करना यह रिंकू का व्यक्तित्व था। आता बैठता बाद में, शुरू पहले हो जाता, “देखा सड़क बनानी फिर रोक दी। सब मिले हुए हैं। पैसा खाने में शेर काम में ढेर। पहला सरपंच बस कहता रहा। इसने शुरू किया। पर अंत तक नहीं पहुँच रहा। क्या करें?” 

“वोट तो तूने भी डाला था। तब तो पैरों में गिरता फिरता था,” गरचा, जो परचून की छोटी-मोटी दुकान करता था, ने उत्तर में कहा। 

रिंकू चुप हो गया। थोड़ी देर चुप रहने के बाद फिर बक बक करने लगा। 

“कल हरिपुर गया था। वहाँ से कुछ धार्मिक किताबें लाया था। उनसे मन को बड़ा आराम पड़ता है। क्या उनमें जो कहा गया है वह सब सच है?” 

प्रश्न के उत्तर में गरचे ने कहा, “भाई मैं क्या जानूँ इन सब बातों को।”

“हाँ, वो ठीक भी है। आपको कैसे पता होगा इन सब बातों का? पर लगता है नमक मिलना भी सम्भव न हो,” नमक के अभाव की अफ़वाह की तरफ़ संकेत करते हुए कहा। 

रिंकू की बातें आक्रोश से भरी होतीं और होतीं सारी की सारी असंगत। एक बात कर तुरंत दूसरी पर आ जाता। जल्दी-जल्दी रील बदलता। इतनी जल्दी तो कोई मोबाइल पर गाना भी नहीं बदलता होगा। ऐसा लगता जैसे उसका मस्तिष्क दूर से भाग कर आया था और विचार साँस की तरह ज़ोर-ज़ोर से चल रहे थे। 

बातूनी तो बेशक था। पर साथ ही दिल दुखाने वाली बातें भी ख़ूब ज़ुबान पर रहती। उसकी दुकान के आगे किसी ने लाल कपड़े में सिंदूर इलायची आदि डालकर बाँधकर रख दी। सुबह आते ही जब उसने देखा, आग बबूला हो गया। भद्दी गालियाँ निकालने लगा। 

बुड़बुड़ाते वह गरचे के पास आया। कहने लगा, “बीर, लोग जलते बहुत हैं। थोड़ा-सा काम क्या चलने लगा जादू टोना करने लगे हैं! लाल कपड़े में टोना कर रखा था दुकान के आगे। फेंक के आया हूँ। नहाने के बाद अब आ रहा हूँ। लेट हो गया।”

ऐसा लगता जैसे सारी दुनिया का भार उसके सिर पर और वह भार उतारना भी नहीं चाहता। जैसे उसको मज़ा आ रहा था। और बिलबिला भी रहा था। कठिन, जैसे अपने जीवन की बजा रखी हो। 

पुरानी चीज़ का बड़ा फ़ैन। कोई चीज़ किसी के पास रखी हो चाहे काफ़ी ख़स्ता हालत में हो, सौदा पटा कर निपटा भी देता। कुछ दिन पागलों की तरह उसे ख़रीदी वस्तु को ठीक कर उपयोग में लाता, जैसे-तैसे। फिर कोई नई चीज़ के पीछे पड़ जाता था। 

“बीर, मैं मद्दी को कल देख लेता। महीने पहले पंचर लगवाया था। पर पैसे जेब में एक नहीं। ‘कल दूँगा’ कहते कहते महीना बीत गया। साले की कल साइकिल ही खड़ा ली। अपने घर की धोंस देने लगा। मैंने भी कहा-बच्चूअपने अंकल को कह दिया ना तो साले टट्टियाँ लग जाएँगी। मैंने फिर दया कर छोड़ दिया। कहा—पैसे दान किये। अब साला दुकान पर खड़ता भी नहीं,” एक साँस में सारा वृत्तांत कह गया। 

कोई आगे से क्या प्रतिक्रिया देगा उसे कोई मतलब नहीं। बस अपनी सारी बात व्यक्त कर देनी है। रास्ते में कभी मिल जाए दुआ सलाम करो तो कभी ध्यान देता था; तो कभी यों व्यवहार करता था जैसे जानता भी नहीं। शायद अपने ख़्यालों में ही खोया रहता या एकदम स्वार्थी। पर जो भी था, था दिलचस्प किरदार। 

बुख़ारों का मौसम था। जना-खना बुख़ार से पीड़ित। नया ही बुख़ार आया चिकनगुनिया। सारे बदन में दर्द और टेंपरेचर उतरने का नाम ही ना लेता। हाथ पैर बिल्कुल जकड़े जाते। ऐसे में रिंकू दुकान पर घूमता-घूमाता आया। 

गरचे ने पूछा, “बड़े दिनों के बाद दर्शन दिए, भाई?” 

“बस बीर, दिल ही नहीं किया। और मैं जो कहता हूँ आपको पसंद नहीं और आपके विचार भी मुझसे मेल नहीं खाते। इससे तो अपने आप ही दूर रहना चाहिए।”

यूँ कहा कि जैसे उसे आगे वाले की कोई फ़िक्र नहीं। बुरा माने या ना माने। 

“बुख़ार बड़ा ख़तरनाक है, बीर। अभी कई बन्दे फट्टर हुए बैठे हैं।”

कुछ देर चुप रहा फिर वॉल्यूम खोला, “यह कुछ दाने टाइप धप्पड़ से पड़ गए हैं। खारिश भी कमाल की है।” कमीज़ का कॉलर हटाते हुए। 

“इसको जल्दी डॉक्टर को दिखा। यह जो नया बुख़ार आया है इसमें लक्षण हो जाते हैं।”

“पर मुझे तो बुख़ार नहीं है।”

फिर बिना कुछ कहे फटाफट चल दिया। 

आज हफ़्ता भर हो गया पर रिंकू का कुछ अता-पता न था। रोज़ बकबक करने वाला नदारद था। जानने वालों से पूछा उन्होंने भी कुछ संतोषजनक जवाब ना दिया। हफ़्ता दो हफ़्ते में तब्दील। पर उसका कुछ पता नहीं चल रहा था। फिर एक दिन लँगड़ाते हुए चल कर आता दिखा। 

“बड़े दिन बाद दर्शन दिए। कहाँ ग़ायब हो गए थे। और यह लँगड़ा के क्यों चल रहे है। कोई चोट-वोट तो नहीं लग गई,” गरचे ने उसे देखते ही सवाल दनदना दिए। बाद में तो मौक़ा मिलने से रहा। रिंकू ने कोई जवाब ना दिया। बेंच पर आराम से बैठ गया। शायद वो जवाब के मूड में नहीं था। 

फिर यकायक कहा, “बीर, चिकनगुनिये ने हिला कर रख दिया। चलना, उठना, बैठना मुहाल। बस मौत के मुँह से बचकर वापस आया हूँ। घर के बेहोशी के आलम में अस्पताल ले गए। डेढ़ हफ़्ते बाद सोझी की अवस्था आई। भला हो डॉक्टर का जिसने जान बचा ली। नहीं तो राम नाम सत्य हुआ था समझो।”

गरचा उसे आश्चर्य से देखता रहा। वह फिर बोलने लगा। अपना कोटा पूरा करने की फ़िराक़ में था। 

“बीर, फोगिंग तो शायद ही कर पाएँगे। मच्छर जो गुँजाइश छोड़ेंगे तभी तो इस कार्यक्रम को अंजाम दे सकता है प्रशासन। और सुना है साहब आजकल यात्रा पर हैं। सर्विस वाले कैसे तालमेल रख पाएँगे? मच्छरनुमा यमदूत हमें ठिकाने लगाने को मशग़ूल है। जो बच गया सो बच गया वरना तो माया मोह का झंझट ही ख़त्म। वह किताबें, जो हरिपुर से लाया था, उसमें नरक का जो वर्णन था। वह यहाँ के वातावरण से शत प्रतिशत फ़िट बैठता है। मरने के बाद क्या होगा। उसका इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं। यहीं प्राप्त है।”

कहते ही वह लँगड़ाते हुए आनन-फ़ानन में गतिमान हो गया। गरचा मुस्कुराया और दूर तक उसकी आकृति आँखों से ओझल होने तक देखता रहा। 

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