जब पुल टूटा

15-10-2023

जब पुल टूटा

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 239, अक्टूबर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

पुल के टूटने पर इधर के लोगों का दूसरी तरफ़ जाना दूभर हो गया था। दूसरी तरफ़ वाले भी परेशान। बरसाती नदी थी। जब भी पहाड़ों पर बादल छाते पानी चढ़ आता। मध्य में से नदी के बहने का स्थान गहरा हो गया था। गाड़ी निकालना जोखिम का काम था। फलतः ट्रैफ़िक अन्य सँकरे लिंक रोड से निकलने लगी। भारी वाहनों के कारण रोड जाम हो जाता। सँकरी गलियों में से गुज़रना और भी जोखिम का कार्य। स्कूल की बसें फिर चालू हुईं। इसी मार्ग का अनुसरण करने की विवशता थी। बच्चे घर लेट पहुँचते घूमते-घुमाते और जाते भी जल्दी थे। 

घर के सामान की क़िल्लत बढ़ गई। बारिश फिर से हो रही थी। नदी उफान पर। आने जाने के लिए नदी पर सीमेंट के पाइप डाले जा रहे थे। अनियमित पुल की व्यवस्था का प्रयास। पर सब व्यर्थ पानी सब बहा के ले गया। 

सेवाराम सरकारी नौकर था। उसे रोज़ पार जाने का जोखिम उठाना पड़ता। पैदल चलकर सुबह तो नदी पार कर गया था। पर शाम को घर आते नदी चढ़ी मिली। ऑटो वाले नदी के दोनों तरफ़ खड़े होते। इधर उतर कर पैदल नदी पार करो दूसरी तरफ़ ऑटो आप को गंतव्य तक पहुँचा देता। अब नदी उतरने की प्रतीक्षा करनी थी उसे। काफ़ी भीड़ दोनों किनारों पर थी। घूम कर भी नहीं जा सकता था उस तरफ़ कोई ऑटो वाला ना जाता। बूँदाबाँदी तेज़ हो गई। छतरी भी भीगने से बचाने में सक्षम नहीं थी। हवा के कारण बारिश की बौछार ने लगभग सारे कपड़े गीले कर दिए। 

हल्की हवा भी ठंड की सिरहन चढ़ा देती। हाय! चाय की चुस्कियाँ! मन में विचार आते ही सेवाराम ललचा उठा। ऊपर आकाश में देखकर वर्षा से हाथ जोड़ रुकने की मन ही मन प्रार्थना करता। वह सुनती अगर उसके कान होते हैं और फिर ऊँचाई से आने वाले नीचे वालों की सुनते भी कम है, रौंदते ही चले जाते हैं। 

समय बढ़ता ही जा रहा था रात के नौ बज गए थे। मोबाइल की घंटी पर घंटी बज रही थी। शायद घर से हो। फोन निकाल कर भी नहीं देख सकता था। प्लास्टिक के लिफ़ाफ़े में लपेटकर पैंट की जेब में रखा था, भीगने से बचाने के लिए। पहले भी एक फोन ऐसे ही ख़राब हो गया था। क्या करे? ऊपर से भीगने के कारण ठंड से रोंगटे खड़े हो गए थे। पास ही टीन से ढका मकान था। उसके बादरे के नीचे खड़ा हो गया। छतरी को बंद किया। कपड़े झाड़ते हुए। 

‘क्या फ़ायदा छतरी रखने का सारा गीला कर दिया,’ बड़बड़ाते हुए बोला। भूख भी तेज़ हो गई थी। पीछे बाज़ार की तरफ़ मुड़ कर देखा। ‘लेट हो गया। घर पर फोन करके बता दूँ, लेट आऊँगा,’ अपने आप से कहा। 

बाज़ार यहाँ से दो सौ या तीन सौ मीटर दूर ही था। हलवाई की दुकान पर बैठकर चाय के साथ मठ्ठी खाने का मज़ा लेना इस समय उसे सबसे आवश्यक काम लगा। चाय पीने के बाद वह कुछ देर दुकान पर ही बैठा रहा। दस बजे थे। बारिश बंद हो गई। जाकर देखा पर नदी अब भी उफान पर थी। सो उस सँकरे लंबी रोड को पैदल पैदल हो लिया। रास्ते में गाड़ियों को हाथ देता रहा। पर किसी ने गाड़ी ना रोकी। किसी भाँति घर पहुँचा। 

सुबह दफ़्तर जाने का मन नहीं था। हल्का-सा बुख़ार भी था। शरीर भी बेहद थका हुआ था। दस मील की यात्रा रात पैदल ही की थी। 

फोन कर ऑफ़िस में सूचित कर दिया कि वह आज नहीं आएगा। 

दिन में कुछ थकान कम हुई विचार किया पुल के पास नदी को देखकर आए। वहाँ जाकर देखा पानी उतर गया था। पर पैदल का रास्ता भी बह गया। कीचड़ ही कीचड़। स्वतंत्रता ही छिन गई है जैसे। प्रशासन एक महीने से पुल के दिवाले खड़ा था। अनियमित पुल निर्माण भी फ़ेल। पता चला रात नदी पार करता मोटरसाइकिल सवार बह गया। उसकी तलाश की जा रही थी। सामने अब भी पैदल पार पथिक आ जा रहे थे। पैर कीचड़ में सने जान जोखिम में डाले। एक मोटरसाइकिल वाला कीचड़ में फँस गया। आसपास के लोगों ने खींचकर बाहर निकाला। 

सेवाराम ने देखा कुछ लोग वाहनों को नदी पार कराने में मदद कर रहे थे। उसने इन मददगारों के बारे में जानकारी ली। नदी के किनारे झुग्गियाँ थीं और उनमें रहने वाले लोगों को एक काम मिल गया। वह व्यक्ति जो बढ़िया ड्राइवर व साथ में साहस वाले भी थे, वाहन को चलाकर नदी पार करवा देते। उसके पैसे भी लेते थे। किसी गड्ढे में गाड़ी फँसने पर धक्का लगा कर या किसी और तरह मदद कर बाहर निकलवा देते। शाम तक अच्छी ख़ासी दिहाड़ी बना लेते थे। उनके लिए पुल टूटना बेरोज़गारी से कुछ दिन का आराम था। 

ज़्यादातर दो पहिया वाहन वाले जिन्हें पानी कीचड़ से डर लगता। नदी में पानी चाहे उतर भी गया हो पर हल्के पानी से भी एक भय बैठा हुआ था। जिसका फ़ायदा इन मददकारों को मिलता। 

अनियमित पाइपों के पुल के टूटने पर फिर प्रशासन के कर्मचारी इधर दिखाई नहीं दिए। पैदल पार पथिक को अपने काम-काज करने के लिए उस पार इस पार आना–जाना पड़ता ही। नदी के समीप गाँव के सरपंच ने लोगों की सहायता से मज़बूत रस्सी पुल के एक छोर से दूसरे छोर तक बाँधी। जिसमें कुछ लोगों की ड्यूटी लगा दी गई ज़रूरतमंदों को पार कराने की। लोग-बाग सहर्ष इससे जुड़े। यह व्यवस्था फ़्री थी। इसमें ‘मददगार’ की भाँति टैक्स नहीं था। 

विपदा में सामान्य जन का मिलकर सामना करने का जो मन का सात्विक भाग था प्रकट हो गया। अब सेवाराम इस रस्सीनुमा पुल को पकड़ नदी पार करने लगा। नीचे पत्थरों में पैर भी डगमगा जाता। पर विवशता थी। घर बैठ कर काम थोड़े ही चलता। 

सुबह और दोपहर को विशेष रूप से वह सरपंच स्कूल के बच्चों को पार कराने के लिए उपस्थित होता। अन्य युवा साथियों का उत्साह भी बढ़ाता। 

लोकल चैनल, अख़बार सभी में समस्या का विस्तार से वृत्तांत हुआ। पर प्रशासन लकवा ग्रस्त, ढीठ। कोई किसी प्रकार की हलचल नहीं। थक-हार के ग्रामीण लोगों ने पैसे इकट्ठे किए, डेढ़-दो लाख के लगभग। अब बारिश का क़हर भी थोड़ा कम था। बीच में गहरे स्थान की जगह जहाँ से अभी भी थोड़ा पानी बह रहा था। वहाँ सीमेंट के तीन चार बड़े-बड़े पाइप डालकर एक छोटा सा पुल बना दिया। ऊपर तक के रास्ते को जेसीबी से सँवार दिया। दिन-रात सबने मिलकर काम किया। जो दो पहिया और कार जैसे छोटे वाहनों के लिए उचित था। ध्यान रखने के लिए कुछ ग्रामीण बैठे रहते कि कोई बड़ा वाहन ट्रक आदि उससे ना गुज़रे, नुक़्सान न पहुँचा दे। 

सेवाराम इस सामान्य ग्रामीण जन और उस अगुआ, सरपंच को मन से प्रशंसा देता। किसी अपने मित्र को इस बारे में कहता, “स्वयं ही स्वयं सहायता हो सकती है। प्रशासन के सहारे बैठे रहते तो अगले जन्म में भी ऑटो में बैठकर नदी पार नहीं कर पाते।”

शाम के समय अपने काम से आते हुए, ऑटो से बाहर झाँकते, उस नए पुल के ऊपर निकलते हुए बाल हवा में लहरा रहे थे। उसे ग्रामीण लोगों की इस कृति को देखकर अजीब सी प्रसन्नता थी। अंधकार में एक छोटे से जुगनू के टिमटिमाने की भाँति। निराशा के जंगल में एक उत्साह के उत्पन्न होने की तरह। साथ ही प्रशासन के निकम्मेपन का साक्ष्य था। और लोगों के जीवित हृदय की पहचान। 

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