रेते की ट्रॉली

01-12-2023

रेते की ट्रॉली

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 242, दिसंबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

सुबह का समय था। ‘आठ बज गए होंगे,’ वचित्तर ने फोन में टाइम देखा—उसका अंदाज़ा सही था। मेन गेट पर जाकर देखा कोई ट्रैक्टर ट्राली आती दिखाई नहीं दी। 

‘मिस्त्री और लेबर आने वाली है . . . यह रेते वाला कहाँ मर गया? आज की दिहाड़ी कहीं गले ही ना पड़ जाए?’ उसने मन ही मन विचार किया। 

फिर फोन मिलाया। सुबह से यह दसवाँ फोन था। अभी तक बस मोबाइल में यही आवाज़ आ रही थी, “जिस नंबर से आप सम्पर्क करना चाहते हैं वह अभी मौजूद नहीं है अथवा स्वीच ऑफ़ है।” वचित्तर झल्ला उठा। 

फोन को पैंट की जेब में ठूँस कर घर के भीतर दाख़िल हुआ। अपनी पत्नी मनजीत से कहा, “मूर्ख ड्राइवर को कल कितनी बार कहा था कि टाइम पर रेता भिजवा देना फिर दिन में मैं इधर-उधर हो गया तो . . . अच्छी तरह कहीं सुरक्षित जगह उसको रखवा लेता पर उसके फोन ना उठाने के कारण पता ही नहीं चल रहा कि कब आएगा।”

“तुम्हें कहा तो था किसी और से गिरवा लो।”

“रेता सही गेरता है। मिट्टी थोड़ी-सी भी नहीं होती।”

“ठीक है फिर प्रतीक्षा करो।”

संक्षिप्त वार्ता के बाद दोनों अपने काम में व्यस्त हो गए। मनजीत नाश्ते की तैयारी में और वचित्तर रेते वाले को फोन करने में मशग़ूल। 

मिस्त्री और मज़दूर आ गए थे। उन्हें काम बता कर सड़क की तरफ़ बड़ी आशा से देखने लगा। 

“बाबू जी वह रेता एक दो तसला ही है। एक बोरी का माल बनाना है। क्या रेता आएगा नहीं?” मज़दूर ने पूछा। 

“बस आने ही वाला है,” वचित्तर को स्वयं पता नहीं था पर मज़दूर को सांत्वना दे रहा था। 

दस बजे तक लेबर बेली बैठी रही। कोई जर्दा फाँक रहा था तो कोई बीड़ी का सेवन कर रहा था। वचित्तर ने सबके लिए चाय बनवा दी। दो समय चाय देनी ही होती चाहे काम ठेके पर हो चाहे दिहाड़ी पर। और उसने दिहाड़ी का पंगा लिया हुआ था। तभी मज़दूर-मिस्त्री इत्मीनान से बैठे थे—उनका मीटर तो चल रहा था। और वचित्तर का भी। उनका पैसे लेने में, वचित्तर का देने में। 

जैसे-तैसे रेते की ट्रॉली आई। दोपहर होने को थी। मिस्त्री ने काम रुका देखा वह सुबह की चाय पी कर, ‘थोड़ी देर में आता हूँ ’ कह कहीं चला गया था। उसे साथी मज़दूर ने फोन कर बुला लिया। 

“बाबू भड़क रहा है। जल्दी आओ कहीं दिहाड़ी कट ही ना जाए,” चुपके से मोबाइल पर बात करते हुए  बोला। 

इधर वचित्तर ट्रैक्टर वाले से उलझा हुआ था, “टाइम पर नहीं आना था तो पहले ही ना कर देता अब आधी दिहाड़ी फ़्री में देनी पड़ेगी। उसका कौन ज़िम्मेदार है?”

“बाऊ जी, आज माइनिंग वाले आए हुए थे। तभी लेट हो गया। पकड़ा जाता—ट्रैक्टर ही बोन्ड हो जाना था। गार्ड होता तो कुछ नहीं था—ऊपर से अफ़सर आए हुए थे,” ट्रैक्टर वाले ने सफ़ाई दी। 

उसने ज़्यादा बात करना उचित ना समझा—बीती बात पर क्या बहस करनी—उसका अब कुछ होना नहीं था। 

अपनी क़मीज़ की जेब में से दो हज़ार निकाल कर ट्रैक्टर वाले को दिए। वह शीघ्र रवाना हो गया। मज़दूर रेता नापने लगे। चिनाई का काम था। रेते को छानने की भी अधिक आवश्यकता नहीं थी। नहीं तो उसी में काफ़ी समय जाया हो जाता। 

किसी तरह काम शुरू होता पर लंच टाइम हो गया। अब दो बजे दोबारा काम लगेगा। आधी दिहाड़ी का बेड़ा गर्क़ हो गया। पल्ले से पैसे देने पड़ेंगे। यह था कि मज़दूर मसाले में पानी डाल कर छोड़ गए थे—लेबर आते ही काम पर लग जाएगी। 

वचित्तर ने भी खाना खा लिया था। मनजीत को साढ़े तीन बजे चाय बनाकर रखने को कह वह कन्सन्ट्रक्शन स्थल पर पहुँचा। मिस्त्री ने आते ही बुरी ख़बर बताई। 

“साहब जी रेता तो मिट्टी मिला है। चिनाई में चला ही लेंगे पर लैंटर में मैं अपने बंदे से मँगाऊँगा। आप किसी को मत कहना।”

वचित्तर वैसे ही सुबह से परेशान था। यह बात सुनकर उसका सर ही चक्करा पड़ा। पहले भी उससे रेता डलवाया था—वह बहुत अच्छा डाला था। परन्तु इस बार उसे नहीं पता था कि वह गड़बड़ कर देगा। 

फोन मिला कर रेते वाले की अगली पिछली गिनवाने का मन किया पर वह रुक गया—क्यों फ़ालतू के झंझट में पड़ना। 
 
लैंटर से एक दो दिन पहले उस रेते वाले का फोन आया कि उसके पास मोटा और अच्छा रेता पड़ा था अगर ज़रूरत हो तो वह पहुँचा दे। 

पहले तो ना-नुकर करता रहा वचित्तर ने कहा कि मिस्त्री से पूछ कर बताऊँगा परन्तु फिर बाद में उसने हाँ कर दी। बस एक ही चेतावनी दी कि उसने यह रेता लैंटर में डालना है ग़लत मत दे देना। उसने भी वादा किया, “नहीं, नहीं बढ़िया पहुँचाऊँगा। आप फ़िक्र ना करें।”

वचित्तर ने एक कमरा डालना था। बड़ी मुश्किल से मिस्त्री मिला था—सामान इकट्ठा कर वह इत्मीनान से बैठना चाहता था। रेता इस बार समय पर आ गया—सुबह जल्दी। जगह देख कर पल्ली बिछा कर खेत में ही डलवा दिया। 

गाँव के किसी बुज़ुर्ग ने रेते को देख कर कहा, “रेता ठीक है पर लैंटर में मत डलवा लेना। पतला है।”

अब संदेह पड़ गया—वचित्तर बार-बार रेते को हाथ में लेकर जाँचने लगा—गाँव वाले की बात की पुष्टि हो रही थी। मिस्त्री ने यह रेता भी ख़ारिज कर दिया। साथ में जोड़ा, “रेता, किसी ढांग में जेसीबी ने पाड़ लगाया होगा—वहाँ का ही लग रहा है। 

“मिट्टी रेते की तरह रंग-ढंग की है, जल्दी से कोई पहचान ही नहीं पाता।”

“मिस्त्री, तुम अपने बंदे से रेता गिरवा देना।”

“पर उसका रेट बाईसौ है। दो हज़ार में नहीं गेरेगा।”

“कोई बात नहीं—तुम गिरवाओ। पैसे मैं दे दूँगा। चिन्ता ना करो।”

घर आकर पत्नी को सारी बात बताई। रेते वाले को कोसने लगा। पत्नी ने भूलने को कहा, “अपना ब्लडप्रेशर बढ़ा कर क्या फ़ायदा।”

पर वचित्तर को क्रोध चढ़ा हुआ था—वह चुप कहाँ बैठने वाला था। फोन कर रेते वाले को काफ़ी अपशब्द कहे। बात गाली-गलौज तक पहुँच गई। पत्नी के आग्रह पर फोन बन्द किया। 

अगले दिन रेते वाले ने फिर फोन किया। अब वचित्तर का ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया था। उसने कहा, “रेता काम का है। मोटा, लैंटर के लिए—पानी से ट्राली निकाल कर खड़ाई है—देख लो, अगर कहो तो गेर दूँगा।”

“नहीं भाई, पहले ही एक ट्राली तुमने ग़लत भेज दी। उसे सम्भाल ने में ऐसी-तैसी हो रखी है। और तुम कहते कुछ हो-भेजते कुछ हो। रहने दो। माफ़ करो। मिस्त्री को ही सारी ज़िम्मेदारी सौंप दी है।”

रेते वाला मायूस हो गया। 

एक दिन बाद लैंटर पड़ना था। शटरिंग पूरी हो गई थी। मिस्त्री के साथ जाकर बजरी एक सौ बीस फुट क्रशर पर कह आए। अगले दिन सुबह जल्दी भेजने का वादा कर दिया क्रशर के मुंशी ने। फिर वचित्तर ने मिस्त्री को अपने रेते वाले से रेता मँगवाने के लिए कह दिया। नदी का रेता एक नंबर होता है लैंटर के लिए। बस मिट्टी ना हो। अब मिस्त्री ने जब रेते की ज़िम्मेदारी ले ली थी—वह निश्चिंत था। 

अगले दिन वचित्तर जल्दी उठ गया था। गाँव में दूध लगाया हुआ था। ख़ुद जाकर ही लेकर आता—यह नित्यकर्म था। वह लेने चल पड़ा स्कूटर पर। रास्ते में थोड़ी दूरी पर ही उसका मिस्त्री आता दिखाई दिया। उसने रोक कर कहा, “लैंटर डालने वाले मुकर रहे हैं। कहते हैं छोटे लैंटर के लिए इतनी दूर नहीं आ सकते। और दिवाली के कारण लेबर भी घर गई हुई है।”

वचित्तर के घड़ों पानी नहीं था। वह परेशान हो उठा। बहुत देर तक मिस्त्री से बहस होती रही। वह अपनी मजबूरी बताता रहा। 

“शटरिंग हो गई है। उसका किराया पड़ेगा। आज लैंटर नहीं पड़ा तो दिवाली के तीन-चार दिन बाद ही काम पर लौटेगी लेबर।”

“क्या कर सकता हूँ?” मिस्त्री ने हाथ खड़े कर दिए। 

दूध लेकर घर की तरफ़ रवाना हुआ—मुख से ही दुखी दिख रहा था वचित्तर। 

पत्नी सब बातें सुनकर मिस्त्री को कोसने लगी। वह मोबाइल पर लिखे नंबरों को आगे-पीछे ऊपर नीचे करने लगा। वहीं अपने मित्र गुरजीत का नंबर देख कर वैसे ही मिला दिया। 

उससे हाल चाल पूछने के बाद अपनी समस्या व्यक्त की। 

उसने झट से अपने जान-पहचान के व्यक्ति का फोन नंबर दिया। 

वचित्तर ने फोन नंबर मिलाया—अपनी सारी व्यथा बता दी। 

“मालको चिन्ता ना करो मैं जगा देख जांदा हाँ। फेर देखदे हाँ की होन्दा आ। गुरजीत साडे भरा वरगा है। उदी गल्ल थोड़े ही मोड़ सकदे हाँ।”

वचित्तर की जान में जान आई। मिस्त्री को फोन कर बुला लिया। वह गुरजीत का बताया गया व्यक्ति भी आ गया। 

मिस्त्री ने उसे देखते ही पहचान लिया। 

“संतोख तू!”

“ओए, मक्खन तू! पुराना पापी।”

मिस्त्री ने झट से उत्तर दिया, “पापी नहीं पुराना धार्मिक हाँ।”

“ठीक, ठीक। लैंटर पा दयीए।”

थोड़ी देर रेट का मोल-भाव होता रहा। निर्णय होने पर संतोख ने कहा, “मज़दूरों को ले आऊँ। पंज-छह बन्दे तां चाहिदे ही हैं।”

“मशीन नाल नहीं पाएँगा?” मिस्त्री ने पूछा। 

“मशीन दी की लोड़। आपां ही पा देना है।”

मिस्त्री ने फिर कहा, “फेर मसाला अपनी मर्ज़ी का मिलवाऊँगा। कच्चा-पक्का नहीं।”

“जैसा मर्ज़ी बनवा लीं।”

एक बजे तक सब पहुँच गए। रेता, बजरी भी समय पर आ गई थी। रेते को देख कर संतोख ने कहा, “रेते विच पत्थर ही बहुत है।”

वचित्तर पास ही खड़ा था। मिस्त्री ने उसका मुख देखा—वह उतर गया था—यह बात सुनकर। 

स्थिति को सम्भालते हुए उसने कहा, “रेते में पत्थर तो चल जाते हैं—मिट्टी नहीं होनी चाहिए। रेता तो सोना है।”

संतोख ने हामी भरी। फिर वह और मज़दूर रेता बजरी नापने लगे। 

तीन घंटे में लैंटर पड़ गया। दस बाए बारह फुट का कमरा था। ज़्यादा टाइम क्या लगता! 

मिस्त्री ने सुबह मनेरे बाँधने के लिए आने के लिए मज़दूर को राज़ी किया। 

“दो घंटे का काम है। सात बजे आकर मनेरा बाँध देंगे। फिर दिवाली मनाएँगे। आधी दिहाड़ी मिल जाएगी। क्यों, है ना साहब जी।”

वचित्तर की तरफ़ मुँह करके कहा मिस्त्री ने। 

अगले दिन मिस्त्री तो नहीं आया उसका फोन आया। 

“साहब जी एक मज़दूर भी नहीं आ रहा है। आप दोपहर को पानी की छींट मार देना, शाम को भी। मौसम ठंडा ही है। कोई चिन्ता की बात नहीं। त्योहार के बाद मनेरा बाँध देंगे।”

वचित्तर मिस्त्री की बात हैरानी से सुनता रहा। 

तीन दिन तक सुबह, दोपहर, शाम पानी का छींटा मारता रहा वह। चौथे दिन मिस्त्री का आगमन हुआ—अपने लड़के के साथ। मज़दूर आज भी नहीं आया था। 

मिस्त्री ग़ुस्से में था। मनेरे के लिए ईंटें स्वयं ही छत पर पहुँचाने लगा। लड़के को रेता नापने लगाया। वचित्तर ने जब यह देखा तो वह भी ईंटें ढोने में सहायक बना। छत डालने वालों ने पैड बनाई हुई थी उस पर चढ़ कर खड़ा हो गया—नीचे से मिस्त्री ईंट पकड़ाता—वह ऊपर छत पर रख देता। मिस्त्री का लड़का छत पर ईंटें किनारे के पास रखने लगा, ‘रेता बाद में नाप लेगा’—यह सोच कर। कम से कम एक काम तो निबटेगा—मिस्त्री ने विचारा था। 

वचित्तर ने पहले इस तरह का काम कभी नहीं किया था। एक बार को चक्कर ही आ गए। पर सम्भल कर कार्य जारी रखा। 

काम समाप्त होने के बाद वचित्तर बहुत थक गया था। मिस्त्री चला गया—वह भी घर पहुँच धड़ाम से अपने बिस्तर पर पसर गया—नींद की झोंक में। थकान ने बेहाल कर दिया था। 

अगले दिन रेते वाले का फोन फिर आया। 

“बाई जी, रेते दी ज़रूरत तां नी।”

“ओ, काहे को तंग कर रहा है। पहले ही एक ट्रॉली रेता जमा है—तेरी कृपा से। अब पीछा छोड़।”

रात खाना नहीं खाया था। सुबह के सारे काम निबटा कर नाश्ता करने में व्यस्त हो गया। फिर जाकर छत पर पानी भी चढ़ाना था। क्यारे मिस्त्री ने बना दिये थे—कच्चे मसाले से। 

स्थान विशेष पर पहुँच कर वह हैरान रह गया—कोई रेते को उठा कर ले गया। पल्ली भी नहीं छोड़ी। खेत में ट्रैक्टर के पहियों के निशान थे। शायद किसी ने ट्रॉली जोड़कर रेते पर हाथ साफ़ कर लिया। ‘रेते की भी चोरी होने लगी—कमाल है। वह भी ढांग का रेता था—कोई इतना बढ़िया तो नहीं।’ वचित्तर ने मन में विचार किया। 

वह इसी विचार में डूबा था। तभी किसी की जानी पहचानी आवाज़ कान में पड़ी। देखा यह वही रेते वाला था—जिसने ट्रॉली ग़लत रेते की डाल दी थी। 

“बाऊ जी, रेता लाया हूँ,” ट्रैक्टर से ही चिल्ला कर कहा। 

वचित्तर पहले ही परेशान था—रेते की बात सुनकर और भड़क गया। वह कुछ कहता उससे पहले ही रेते वाला ट्रैक्टर से उतरा और कहने लगा, “रेता मैं ही उठाकर ले गया था। आप हमारे पक्के ग्राहक हैं। दो बार ग़लत रेता गिर गया था। लेबर ने गड़बड़ कर दी थी। उनकी ग़लती का आपको क्यों नुक़्सान हो। इस बार आपके नुक़्सान की भरपाई करनी ही थी। उसकी जगह रेता लाया हूँ। वहीं खेत में डाल दूँ। पल्ली ट्राली को ढकने के लिए ले गया था—माइनिंग वाले बड़ा तंग कर रहे हैं—रेता छुपा कर लाया हूँ। पल्ली बिछा कर रेता डाल देता हूँ। अब रेता देखना शक्कर जैसा दरदरा है।”

बरसों बाद एक ऐसे शख़्स से मिल कर प्रसन्नता हुई वचित्तर को—जिसे दूसरे में अपनेपन-सा अनुभव था। दूसरे के नफ़े-नुक़्सान से सरोकार रखता था। उसकी आँखों में अपनी छाया दिखी जिसे पहले कभी ग़ौर से नहीं देखा था। 

“बाऊ जी, ग़लती-फलती माफ़ करना। आगे से रेता बजरी के लिए बेधड़क फोन करना। टाइम से पहले पहुँचा दूँगा।”

ट्रैक्टर स्टार्ट कर वह चला गया। 

अपनी पत्नी को सारी बात कही। वह भी आश्चर्यचकित हुई। इतना कहा, “हम कईं बार किसी को समझने में कितनी ग़लती करते हैं। गुलाब को काँटा समझ लेते हैं।”

 हेमन्त कुमार शर्मा

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