मशीन का अनुलोम विलोम
हेमन्त कुमार शर्मा
बात निकली तो दूर तक जानी ही थी। ‘वॉटर मिस्ट स्प्रिंकलर’ यानी पानी सूक्ष्म बारीक़ कण की बौछार मशीन का नगर में आगमन हो गया था। एक नहीं दो की संख्या में। भला लाखों में मूल्य था—प्रचार ना होता! पादा जी के पेट में सुबह से गैस की समस्या आरंभ हो गई थी—जब से यह समाचार अख़बार में पढ़ा। मियाँ जी को सुबह से दस फोन कर दिये। पर उन्होंने एक बार भी फोन नहीं उठाया। थक-हार के वह ख़ुद ही अपना स्कूटर लेकर उनके घर पहुँच गए। पहले पहल फोन ना उठाने का उलाहना दिया। मियाँ जी ने चार्जिंग पर लगे फोन की तरफ़ इशारा किया। शान्त होने पर इधर-उधर की बात करने लगे। फिर पानी की बौछार मशीन की बात छेड़ दी।
“अच्छा . . . अब समझा आप यहाँ क्यों तशरीफ़ लाए हैं। बात पचाना मुश्किल हो रहा था,” छेड़ते हुए कहा।
चाय भी आ गई थी। चुस्की लेने के बाद बिस्कुट को चाय में डुबोकर पेट में पहुँचाने का उपक्रम किया और कहने लगे, “मियाँ जी, प्रशासन बुलंदी पर है। वायु प्रदूषण को ख़त्म करके ही रहेगी,” प्रश्नवाचक नज़रों से देखते हुए पूछा।
गूढ़ गंभीर प्रश्न की तरह लगे पादा जी के वाक्य। चुप रहना ही प्रशस्त समझा। कबाड़ के अनगिनत गोदाम इस क्षेत्र में विराजमान थे। नित्य प्लास्टिक जैसे अन्य कबाड़ को निर्मम तरीक़े से जलाया जाता था। लोगों के कई बार विरोध करने पर भी बंद ना हुआ। प्रशासन ख़ुद उनको प्रश्रय दे रहा था और और बड़े लोग भी नहीं चाहते थे। सुनता कौन? और प्रशासन गंभीर है। एक मज़ाक़ ही तो था। सो मियाँ जी चुप ही बैठे रहे। वह अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहते थे।
“अरे, मुँह में दही जमा ली है क्या? बोलता क्यों नहीं?” ज़ोर देते हुए पादा जी ने पूछा। फिर मियाँ जी के मिज़ाज को जानते ही थे पादा जी, “सड़क के दोनों और हरित पट्टी बनाएगा प्रशासन। पेवर्स की भी तैयारी है।”
अभी कहकर फ़ारिग़ ही हुए थे; मियाँ जी तैश में आ गए। आजकल सड़क के नाम से ही वह चिढ़ जाते थे। हफ़्ते पहले बीवी के साथ बाज़ार कुछ सामान क्रय करने गए थे। सड़क के किसी बड़े गड्ढे में उनका स्कूटर फँस गया। और वह स्कूटर समेत धड़ाम से गिर गए। कीचड़ में सराबोर। कल से गंदे पानी की नाली ‘ओवर-फ़्लो’ होकर सड़क पर ही बह रही थी। चोटों का उन दोनों को ख़्याल ना रहा। जैसे-तैसे घर पहुँचे। जग हँसाई हुई वह अलग। पादा जी की बात सुनकर क्रोध में आना लाज़िमी ही था।
“अरे सड़क के किनारे सजाने के लिए सड़क होनी भी तो चाहिए या सड़क को ही किनारा समझ लिया है? धूल कण ना उड़ें इसका विचार प्रशंसनीय है पर सड़क पर जो ट्रैफ़िक से धूल का बादल बना रहता है, उसका क्या? सड़क ग़ायब है। बस खड्डे ही खड्डे। खड्डे में सड़क है या खड्डे सड़क में? लुक्क डाली थी कभी? कहीं निशान है? सारी सड़क कच्ची। भीतर की चमड़ी उखड़ के बाहर आ गई है।” एक बार में ही बोल गए मियाँ जी।
पादा जी ख़ाली चाय के प्याले को रखकर मायूस हो बैठे रहे। कई बार उस भयानक सड़क का सामना कर चुके थे। विवश हो उधर जाना पड़ जाए—हृदय बाहर निकल पड़ने को करता। गाड़ियाँ चल-चल कर कुछ स्थान पर एक मिट्टी का महीन पाउडर बन गया था। बारिश पड़ने पर वह दलदल में बदल जाता और बारिश पड़ने की भी ज़रूरत नहीं, नाली सड़क पर ही तो थी। कोई माई का लाल ही होगा जो इसमें दो पहिया वाहन निकाल पाए। और पेवर्स हरी पट्टी की बात यह बेमानी लगती। वायु प्रदूषण क्या इन मशीनों से हट पाएगा? पानी की व्यवस्था पहले ही कठिन। पानी के टैंकर इसमें भर-भर के प्रयोग होंगे। यहाँ पानी पीने को प्राप्त नहीं। तीन दिन के बाद आज पानी आया था और छिड़काव के लिए कैसे? हम सब की और कटौती . . .?
यह विचार करते-करते अपने स्कूटर को किक मारने लगे। मियाँ जी पुकारते रहे पर उनकी आवाज़ अनसुनी-सी हो गई गहरे सदमे में थे शायद पादा जी।
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