कुर्ते पर लगे रंग
हेमन्त कुमार शर्मा
बार बार कहने पर वह मान गया।
पर ग़ुस्सा फिर भी मन में रहा।
सर्दी का मौसम जा रहा था।
गर्मी अपने रंग दिखाने लगी थी। वह ग़ुस्सा शायद गर्मी का असर हो? हो सकता था।
जूस का एक गिलास भी नहीं बिका था। ख़ुद रमज़ान का महीना बिता रहा था। बहुत से कष्ट थे। रह-रह कर पथरी का दर्द उठ खड़ा होता।
होली का दिन था। रंगों की बौछार थी मार्केट भर में। न चाहते हुए भी रंग गिर जाता। किसी जानने वाले ने रंग लगा दिया इसी बात का ग़ुस्सा था। रमज़ान का महीना, रोज़े रखे हुए थे खान ने। सब ‘खान’ ही कहते थे। अपनी जूस की रेहड़ी का नाम ‘खान जूस बार’ रखा था। उसका असली नाम आसपास कुछ ही लोगों को पता होगा। आज काम बिल्कुल मंदा था। पहले ही मन ठीक नहीं था। रंग लगने से वह और नाराज़ हो गया था।
रंग लगाने वाले ने बार-बार क्षमा माँगी। इसे ही खान का ग़ुस्सा कुछ शांत हुआ था। पर अधिक क्रोध उसे अपने काम पर आ रहा था। एक रुपया भी गल्ले में नहीं आया था। आज के रोज़गार के सहारे शाम को खाने पीने का सामान घर ले जाना था। इस उधेड़-बुन में दोपहर हो गई। गन्ने भी शायद अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे कि किसी के काम तो आएँ। पर आज वह साबुत न बच जाएँ। पथरी का ऑपरेशन डॉक्टर ने कह रखा था। पर दर्द की दवा लेकर उसे शांत कर देता। यहाँ खाने के लाले पड़े थे। ऑपरेशन क्या ख़ाक होता।
इस सोच के दौरान होली मनाती भीड़, ढोल बजाते हुए उसकी रेहड़ी के पास से गुज़री। गली सँकरी थी भीड़ के मुक़ाबले। गुलाल, रंग उड़-उड़ कर खान के सफ़ेद कुर्ते पजामे पर जगह बनाने लगा। कुछ परस्पर पिचकारियाँ चला रहे थे। उसके छींटे खान के ऊपर पड़ गए। वह मुश्किल से अभी शांत हुआ था। फिर से वह आगबबूला हो उठा। पर इतने अधिक लोग थे वह ग़ुस्सा पी गया। पैसों की आवश्यकता न होती तो वह आज रेहड़ी नहीं लगाता।
ढोल बजाने वाले ने यह सब देखा। वह होली के त्योहार को भूलकर खान की ओर बढ़ा और कहा, “चाचा पता है रमज़ान चल रहा है। हुड़दंग मचा है। रंग लग गया, माफ़ी माँगते हैं।”
सारी भीड़ खड़ी, यह सब देख रही थी।
आगे उस व्यक्ति ने कहा, “चाचा रंग का तो कुछ नहीं कर सकते। पर प्यास बहुत लग रही है। सबको जूस बनाकर पिला दो तुम्हारी बड़ी मेहरबानी होगी।”
पहले पहल खान हिचकिचाया। कहीं पैसे न दिए इन्होंने तो?
ढोल वाला व्यक्ति फिर बोला, “चाचा, पैसों की चिंता न करो, मैं दूँगा।”
खान कपड़े पर गिरे रंग को भूल गया था। उसे प्रसन्नता थी कि उसकी बोहनी तो हुई। वह भी अच्छी-ख़ासी।
दो, दो तीन, तीन गिलास एक-एक व्यक्ति पी गया था। शाम के लिए पैसे गल्ले में आ गए थे।
फिर होली वाली भीड़ अपनी मस्ती में डूब गई और खान की रेहड़ी से आगे जाकर रंगों की होली खेलने लगी।
उन सब को होली खेलते देख खान की आँखें प्रसन्नता से छलक पड़ी थी। कुर्ते पर गिरे रंग को देख और छूकर भावुक हो बुदबुदा उठा, “यह भी तेरी मेहरबानी।”
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