दिन उजाला
हेमन्त कुमार शर्मा
दिन उजाला भी अँधेरे सा,
रात भी चाँद ना निकला।
भरी ऑंखें ख़ूब रोई सावन था,
दुख दिया उसने कोई मनभावन था।
बाहर से शांत भीतर आकुला।
संगीत दुख भरा और कुछ अल्फ़ाज़,
कोई कहे अजूबा मुर्दाघर है ताज।
कोई पूरा सुखी तो उसे तुरंत दिखला।
वाह अंतिम इस देह की आस,
घट घट में व्याप्य रहा बोले हर साँस।
जीवन कैसे जीएँ ये भी सिखला।
आशा बँधा कर जीवन निकाला,
रद्दी के भाव बिका मन आला।
मित्र! जीवन पहेली का कोई हल बतला।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अगर जीवन फूल होता
- कहते कहते चुप हो गया
- काग़ज़ की कश्ती
- किसान की गत
- खिल गया काँटों के बीच
- घन का आँचल
- जीवन में
- दिन उजाला
- नगर से दूर एकांत में
- नदी के पार जाना है
- पाणि से छुआ
- पानी में मिल जाएँगे
- प्रभात हुई
- प्रेम की कसौटी पर
- बहुत हुई अब याद
- मन इन्द्रधनुष
- मन की विजय
- मैं भी बच्चे की तरह रोना चाहता हूँ
- राम का अस्तित्व
- रेत में दुख की
- वर्षा
- वो साइकिल
- सितम कितने बयाँ
- सुहानी बातें
- ख़ुदा इतना तो कर
- कहानी
- लघुकथा
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- नज़्म
- सांस्कृतिक कथा
- चिन्तन
- ललित निबन्ध
- विडियो
-
- ऑडियो
-