वो झुग्गियाँ
हेमन्त कुमार शर्मा
हवा तेज़ हो गई। खेत में खड़े टांडे जलाने के लिए फकरु ने आग लगाई थी। जो सारे खेत को आग़ोश में लेने लगी। पास ही मज़दूरों की झोंपड़ियाँ विराजमान थीं।
“अरे, मंगली देखियो तो ये कैसा धुआँ उठ रहा है,” कंडली ने अपनी लड़की से कहा।
वह बाहर देखते हुए बोली, “री, अम्मा कछु ना ही है। ओ बूढ़े ने अपने खेत के टांडे जलाए हैं,” फिर सिलबट्टे पर लाल मिर्च घिसने लगी।
पड़ोसी घुंगरा भागता हुआ आया, “अरे मासी भाग झोपड़ी में आग लगी है।
देखते-देखते झोंपड़ी आग से धूँ-धूँ करने लगी। फकरु ने यह देखा वह भाग उठा।
अन्य झुग्गियाँ भी लपेटे में आ रहीं थीं। कोई पानी डाले, कोई मिट्टी। जिसके हाथ में जो लगे। किसी ने फ़ायर बिग्रेड को फोन कर दिया। त्वरित तरीक़े से काम करने के कारण बड़ा हादसा होने से टल गया। फिर भी दस-बारह झोंपड़ियाँ राख हो गईं। जान की हानि तो ना हुई पर माल बच ना पाया। कोई अख़बार यह ख़बर ना छाप सका। कानों के सुनने की शक्ति लोप हो गई। पुलिस भी असहाय। नोटों में दबकर मामला रफ़ा-दफ़ा हो गया। रसूख़दार बन्दों ने सब बंदोबस्त कर लिया। झुग्गी में भोजन बनाते हुए हादसा हो गया। कोई भरपाई होने ना पाएगी। ऐसा अमली जामा पहनाया। झुग्गी वालों को कुछ मुस्टंडों ने हड़काया। फलतः सब चुप कर गए।
काडो के सारे पैसे जो मज़दूरी करके एक-एक जोड़े थे, वह सब जल गए। मंगली की माँ ने जो गहने उसके विवाह के लिए जोड़े थे उनका पता ना चला। बड़े प्यार से छोटी के लिए दिल मार के, साइकिल ख़रीदी थी वह भी आग की भेंट चढ़ गई।
शाम घुप्प हो चली थी। पेट में क्षुधा फिर जाग पड़ी। अब कैसे खाना बनाया जाएगा। टांडों की आग सब निगल गई।
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