जानता हूँ कितना आज्ञाकारी है
हेमन्त कुमार शर्मा
जानता हूँ कितना आज्ञाकारी है,
यह मन है कितना लिखारी है।
कहता है भले की सब में,
सब की,
बात करता सब से रब्ब की।
अकेले में वहशी छुरी दोधारी है।
कहने से पहले गुनता है,
निंदा शान्त हो सुनता है।
फिर घात लगा,
सिद्धांत का आहारी है।
सत गुण की बात करे,
रज, तम से काम करे।
किसी को कुछ समझता नहीं,
सामने झुकता यों आभारी है।
जानता हूँ कितना आज्ञाकारी है,
यह मन कितना लिखारी है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ग़ज़ल
- सजल
- कविता
-
- अगर जीवन फूल होता
- अब इस पेड़ की बारी है
- और भी थोड़ा रहेगा
- कहते कहते चुप हो गया
- काग़ज़ की कश्ती
- किसान की गत
- क्या हो सकता है क्या होना चाहिए
- क्षण को नापने के लिए
- खिल गया काँटों के बीच
- घन का आँचल
- जानता हूँ कितना आज्ञाकारी है
- जीवन की पहेली
- जीवन में
- तुम चाँद हो
- तू कुछ तो बोल
- दरिया है समन्दर नहीं
- दिन उजाला
- देखते। हारे कौन?
- नगर के अरण्य में
- नगर से दूर एकांत में
- नदी के पार जाना है
- पर स्वयं ही समझ न पाया
- पाणि से छुआ
- पानी में मिल जाएँगे
- प्रभात हुई
- प्रेम की कसौटी पर
- बहुत कम बदलते हैं
- बहुत हुई अब याद
- बूँद
- मन इन्द्रधनुष
- मन की विजय
- मुझे विचार करना पड़ता है
- मेरा किरदार मुझे पता नहीं
- मैं भी बच्चे की तरह रोना चाहता हूँ
- राम का अस्तित्व
- रेत में दुख की
- वर्षा
- वो साइकिल
- सब भ्रम है
- साधारण रंग नहीं है यह
- सितम कितने बयाँ
- सुहानी बातें
- हद वालों को बेहद वाला चाहिए
- ख़ुदा इतना तो कर
- लघुकथा
- कहानी
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- नज़्म
- सांस्कृतिक कथा
- चिन्तन
- ललित निबन्ध
- विडियो
-
- ऑडियो
-