रेत में दुख की

01-02-2024

रेत में दुख की

हेमन्त कुमार शर्मा (अंक: 246, फरवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

आओ फिर से उठें, 
बेहतर में मिल जाएँ। 
रेत में दुख की, 
कुसुम सम खिल जाएँ। 
 
गहरे हैं सन्नाटे, 
गहरी है विषाद की रेखा। 
दूजों की बात करें क्यों, 
अपनों को भी ख़ूब देखा। 
उधड़ें है फिर सिल जाएँ। 
 
बारिश के मौसम में सूखा, 
वह शख़्स कल से भूखा। 
वादे थे कच्चे, 
सड़क की तरह। 
फिर विश्वास किया, 
मन ढीठ की तरह। 
जैसे ज़ख़्म छिल जाएँ। 
 
पीड़ा के क्षणों में, 
सुख के कणों में। 
सूरत बस तेरी थी, 
हवा भी घनेरी थी, 
कहने की देरी थी। 
दरख़्त भी हिल जाएँ। 

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