सन्नाटा

01-02-2022

सन्नाटा

राजीव डोगरा ’विमल’ (अंक: 198, फरवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

एक सन्नाटा सा छाने लगा है
अंदर ही अंदर। 
बहुत कुछ मेरा अंतर्मन
कहना चाहता है, 
मगर पता नहीं क्यों? 
लपक कर बैठ जाता है
ये सन्नाटा ज़ुबान पर। 
 
बहुत सी बहती हुई वेदनाएँ
हृदय तल से
बाहर निकलना चाहती हैं, 
मगर पता नहीं क्यों? 
ये सन्नाटा इन वेदनाओं को
अपनी सर्द हवाओं से
अंदर ही अंदर
क्यों जमा देता है? 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
नज़्म
बाल साहित्य कविता
सामाजिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में