पिंजरे में बंद मानव

01-07-2020

पिंजरे में बंद मानव

राजीव डोगरा ’विमल’ (अंक: 159, जुलाई प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

क्यों अच्छा लग रहा है न?
अब पंछियों की तरह
क़ैद होकर
तुम ही तो कहते थे न,
सब कुछ तो दे रहे हैं हम
दाना-पानी
इतना अच्छा पिंजरा
तो अब क्यों ?
ख़ुद ही तड़प रहे हो
उसी पिंजरे में बैठकर।
क्यों बँधे हुए हाथ-पाँव
अच्छे नहीं लग रहे तुम्हें?
मगर तुमने भी तो कभी
उड़ते हुए पक्षियों के
पंख बाँधकर
सोने के पिंजरे में
उनको रखा था।

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