भूतकाल

राजीव डोगरा ’विमल’ (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

धीरे-धीरे बहुत से 
चेहरे आलोप हो रहे हैं
देखता था जिनको बचपन से। 
 
धीरे-धीरे वो सब आवाज़ें
 ख़ामोश हो रही हैं
सुनता था जिनको लड़कपन से। 
 
धीरे-धीरे वो सब 
अपने-पराये खोते जा रहे हैं
मिलता था जिनको बाल्यावस्था से। 
 
धीरे-धीरे वो सब गाँव 
शहर में बदलते जा रहे हैं
घूमता था जिनकी पगडंडियों के किनारे। 
 
धीरे-धीरे वो सब मानव
दानव में बदलते जा रहे हैं 
समझता था जिनको विश्व का महामानव। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
किशोर साहित्य कविता
नज़्म
बाल साहित्य कविता
सामाजिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में