नासूर

राजीव डोगरा ’विमल’ (अंक: 158, जून द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

ख़ुद को ही
ख़ुदा समझ बैठे हो  तुम?
क्या ख़ुदाई नजर नहीं आ रही
उस ख़ुदा की?


क्यों तुम
अपनी शख़्सियत के बोझ तले
दबा रहे हो आज भी
और लोगों को?


क्या तुम को
रत्ती भर भी एहसास नहीं है,
कि दबे हुए लोग जब उठेंगे
तो उखाड़ कर फेंक देंगे,
तुम्हारी ज़िद्दी शख़्सियत को।


क्यों तुम
औरों को दिखाकर नीचा,
ख़ुद को ही
मसीहा समझ बैठे हो
ख़ुद की नज़रों में ।


क्या तुमको
रत्ती भर बुराई नज़र नहीं आती?
ख़ुद की बिखरी हुई शख़्सियत में?
जो औरों के हृदय को भी
कीलित कर रही है बनकर नासूर।

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